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जयोदय महाकाव्य

जयोदय महाकाव्य 21से28

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

इक्कीसवां रंग

हस्थिनापुर करो प्रस्थान,
जारी ये फ़रमान ।।१।।

पाती झपक ‘कि पलक,
नगर आया झलक ।।२।।

मुख्य द्वार पे उकरी संख्या दो,
‘छ: तीन’ और नौ ।।३।।

छः तीन यानी,
जिन्दगी न तू-तू मैं-मैं में बितानी ।।४।।

नौ से करते जाते गुण,
बढ़ते जाते ‘औ-गुण’ ।।५।।

आगे,
अपार बन्धनवार, गुँथे, सुवर्ण धागे ।।६।।

रखे ऊपर एक के एक,
दिखे घट अनेक ।।७।।

घट ऊपर,
पान रखे फिर, श्री फल इतर ।।८।।

नारिंयाँ,
‘खड़ीं लिये-दिये’ आँगन में कुमारिंयाँ ।।९।।

बड़े सुन्दर-सुन्दर,
पुरे चौक थे घर-घर ।।१०।।

झूल रही थी मुस्कान,
होंठ सभी फूल समान ।।११।।

जोड़ी आपकी रहे सलामत,
था सभी का मत ।।१२।।

लेती बलाएँ,
सयानी-महिलाएँ देती दुआएँ ।।१३।।

दूधो नहाओ,
जुग-जुग जियो ‘जि…ओ ! पूतो फलो ।।१४।।

प्रजा के घर-द्वार,
कर आहिस्ता-आहिस्ता पार ।।१५।।

सामने ही आ गई मंजिल,
यानी राज-महल ।।१६।।

महल-छटा निराली,
कोन कोन सँजी दीपाली ।।१७।।

जी लुभावनी,
वाद्य यंत्रों की ध्वनि थी सुहावनी ।।१८।।

लिये मंगल कलश,
युवतिंयाँ खड़ी गा रही जश ।।१९।।

लिये दिये-घी,
उतारते आरती दोनों की सभी ।।२०।।

बन्ना ने
छुये वृद्धों के पाँव, बन्नी सुलोचना ने ।।२१।।

दिया आशीष,
दादी ने रख हाथ दोंनो ही शीष ।।२२।।

पाने, जी’ ऽपर राज दें बता,
कहा सुलोचना ने ।।२३।।

सत्य दाम्पत्य,
दाम यानी रस्सी से छूटे भी बॅंधे ।।२४।।

सॉंच
दाम्पत्य, टूटे न जुड़े फिर के, जैसे कॉंच ।।२५।।

रंग जमाने संग
बह…ना पर्दे में ही रहना ।।२६।।

जिमा कौर दो,
मुख-मीठे अपना बना और लो ।।२७।।

ना बतियाना
नजर डाल, अच्छा नजरिया ना ।।२८।।

ठण्डी गर्मी न जिन्हें छूती,
बन्नो वे साड़िंयाँ सूती ।।२९।।

समय चोर,
विकथाएँ करना दे ना ‘री छोड़ ।।३०।।

प्यार जताने की जुबानी,
अपनों की खीचा-तानी ।।३१।।

बढ़ा ना,
बात जो बढ़े तो, हो दूर तलक जाना ।।३२।।

आंत का काम नहीं,
बात पचाना आसान नहीं ।।३३।।

यहाँ से वहाँ,
थिरकना पै बन्नो न यहाँ-वहाँ ।।३४।।

रश्मो-रिवाज करिश्मा,
देख ना ‘री उतार चश्मा ।।३५।।

पढ़ाये पट्टी मुंदरी,
‘राख’-खुल्ली ‘मुट्टी’ मूँद ‘री ।।३६।।

छू गुस्ताखी,
दृग् मुदने से पहले ले माँग माफी ।।३७।।

चिंता करनी का… जर,
‘मैं हूँ ना ‘री कहे काजर ।।३८।।

डाली कानों में बालिंयाँ,
दें गालों के साथ तालिंयाँ ।।३९।।

‘सिन्दूर’ एस-आई-एन ‘सिन्’
मीन्स पाप से दूर ।।४०।।

है कौन कौन नहीं अपने सब,
कल के रब ।।४१।।

ढ़क रखने,
‘बाल’ भाषा, पढ़ना सीखा सबने ।।४२।।

सोना उठना,
घड़ी न देख आँखों का भारी पना ।।४३।।

कुछ और न,
दुख केवल और ओर देखना ।।४४।।

और की,
‘बात मान लो’ मोर भी, न कहना कभी ।।४५।।

करके अच्छे से एक ‘काम’
फिर दूसरा थाम ।।४६।।

ज्यादा काम का न रहे, वक्त बचा,
न जल्दी मचा ।।४७।।

पल रिसते दिखाते,
रिश्ते बच्चों से पाले जाते ।।४८।।

किसी को टोक मत,
‘री थोक बिन्दु पहुँच पथ ।।४९।।

दिन-तारे हों दिखना,
नाक-चश्मा न वो रखना ।।५०।।

डर…ना ना, जो होगा सो लेंगे देख,
राख विवेक ।।५१।।

तलक अभी,
सँभाला सँभालेगा वही कल भी ।।५२।।

मिलता कई गुना,
वही पड़ता पै भई बोना ।।५३।।

बेशक मंत्र वशीकरण,
घुरे मिश्री वचन ।।५४।।

दे जाये हाथ-हाथ अफ़सोस,
न गवाना होश ।।५५।।

है वो ना, हमीं स्वच्छन्द,
‘री मन तो भरोसे-मन्द ।।५६।।

‘वायु’ बन के,
रहना आस-पास साधु जन के ।।५७।।

‘री रखते ही ध्यान,
लत-गलत करे प्रयाण ।।५८।।

बचना गो’री ओ !
खींचा-तानी से दो टूक डोरी हो ।।५९।।

बाबीसवां रंग

प्रात के बाद रात,
छू कई रात के बाद प्रात ।।१।।

दिन-एक,
जै-सुलोचना बादल थे रहे देख ।।२।।

देख विमान एक,
जै बोला तभी, हा ! प्रभावती ।।३।।

जाति स्मरण कथा वृत्त छुआ,
जै मूर्च्छित हुआ ।।४।।

हा ! रतिवर कह,
सुलोचना भी मूर्च्छित वह ।।५।।

दृग् छू कापोत युगल,
था हुआ ही, छू अभी पल ।।६।।

थामने लोग दौड़ पड़ते,
दोनों ज्यों ही गिरते ।।७।।

सँभाल,
उन्हें लगाया चन्दन का लेप तत्काल ।।८।।

की गई हवा धीरे-धीरे,
चाले ज्यों नदिया तीरे ।।९।।

लोचना,
होले होले खोलते दोनों, जै सुलोचना ।।१०।।

सभी को लख,
वे लखें एक दूजे को एक-टक ।।११।।

‘जि था क्या हुआ पूछना,
बतलाते जै सुलोचना ।।१२।।

धनी,
कुबेरप्रिय, ‘नाम’ नगरी पुण्डरीकिणी ।।१३।।

श्रावक सिर-मौर,
उस-सा मुनि भक्त न और ।।१४।।

समेत प्रिया,
था एक कबूतर, उसके घर ।।१५।।

था रतिषेणा नाम,
व रतिवर उसके स्वाम ।।१६।।

पखारे मुनि पाद-पयोज,
सेठ ने एक रोज ।।१७।।

देख आहार,
कापोत परिवार, खुश अपार ।।१८।।

और करता प्राप्त उसी क्षण,
वो जाति-स्मरण ।।१९।।

रहने लगा फलत:,
ब्रह्मचर्य से वह, पता… ।।२०।।

एकदा बैरी बिलाव ने,
आ किया घायल उन्हें ।।२१।।

राजा आदित्य-गति के घर,
जन्मा वो कबूतर ।।२२।।

पुकारा गया उसे,
हिरण्यगर्भा शुभ नाम से ।।२३।।

रु राजा वायुरथ बिटिया,
बनी कपोत प्रिया ।।२४।।

सुन्दराकृति,
था रक्खा नाम उसका प्रभावती ।।२५।।

हुआ इनका गठजोड़,
लगाई वक्त ने दौड़ ।।२६।।

कभी करते विचार,
मिले नृ-भौ’ न बार-बार ।।२७।।

और ले दीक्षा ली उन्होंने,
न शामे-शुकून खोने ।।२८।।

करने लगे,
जै परिषह वह सहने लगे ।।२९।।

एकदा विद्युत्-चर चोर ने,
दिया आ जला उन्हें ।।३०।।

पाये वे स्वर्ग-धाम,
धार-धीर पा जीवन शाम ।।३१।।

पाते केवली भगवन्,
विहरते वे एक दिन ।।३२।।

उनके पाँवों में झुका माथ,
बोले वे जोड़ हाथ ।।३३।।

मेरे भगवान् !
क्या हमारा भी होगा, कभी कल्याण ।।३४।।

मनी दीवाली,
मुझ जैसे की, आप तो पुण्यशाली ।।३५।।

कहने पे यूँ भगवन् के,
पूछते वे भगवन् से ।।३६।।

कर्म ने खेला-खेल क्या आप साथ,
कहिये नाथ ।।३७।।

मैं विद्युत्-चर चोर,
वही बिलाव न कोई और ।।३८।।

की गुस्ताखी ‘भौ-भौ’
जिसने ली और-माफी ‘शिव-नौ’ ।।३९।।

शिव-शिविका
जो चाह, तो पनाह… भेष ऋषि का ।।४०।।

खत्म थी नहीं कथा हुई,
लो जुड़ी, ‘कि कथा नई ।।४१।।

भौ विद्याधर सिद्ध,
विद्याएँ खड़ी आ कर वद्ध ।।४२।।

उन्हें अपना,
पूरा उन दोनों ने यात्रा सपना ।।४३।।

बड़े निराले,
तीरथ भौ-तीर, ‘थ’…थमाने वाले ।।४४।।

तीरथ-थान,
गायें महा-पुरुष कीरत गान ।।४५।।

कर देते जी बाग-बाग,
दर्शन तीर्थ सौभाग ।।४६।।

तीर्थ सावन दूसरे,
‘जी’ कर दे साफ सुथरे ।।४७।।

करें ‘धी’ खोटी खण्ड-खण्ड,
तीरथ ज्योति अखण्ड ।।४९।।

तलक गिरि मानुषोत्तर,
यात्रा उन्होंने कर ।।५०।।

‘भक्ति भाव से’
गिरिराज कैलाश जो, छुआ उसे ।।५१।।

थे हाँ ! घूमते हाथी,
जहाँ उसी के बच्चों के भाँती ।।५२।।

सुरा…गो मिष,
था धारे जो चलता-फिरता जश ।।५३।।

इन्द्र धनुष वाले, घन सा भासे,
रतन प्रभा से ।।५४।।

भ्रमित मोर सलील,
महा-महा मणिंयाँ नील ।।५५।।

विद्याधरिंयाँ तारे थामें,
समझ ओले बर्षा में ।।५६।।

घने इतने विरछा,
‘कि दिन भी रात जैसा था ।।५७।।

दिखी सुदूर देवालय,
पताका सुलोचना जै ।।५८।।

वही से किया साष्टांग नमस्कार
दे जै-जैकार ।।५९।।

देते मंदिर तीन प्रदक्षिणा,
जै सुलोचना ।।६०।।

करते बाद प्रवेश,
वहाँ, जहाँ याद स्वदेश ।।६१।।

छुये कपोल अश्रु धार ने,
देख प्रभु सामने ।।६२।।

लगा उन्होंने तकटकी,
प्रतिभा-जिन निरखी ।।६३।।

और पूजन, करके अभिषेक
साथ विवेक ।।६४।।

चाले गुफाओं की करने वन्दना
जै सुलोचना ।।६५।।

गूँजा द्यु शील-सुलोचना जै गान,
इसी दौरान ।।६६।।

सुन समीक्षा,
था आया देव लेने गुण परीक्षा ।।६७।।

बात में कुछ पन-जवां है,
या ‘कि सिर्फ हवा है ।।६८।।

और सहारे विक्रिया नूप,
स्त्री का बनाया रूप ।।६९।।

पगतलिंयाँ निराली,
थीं जिसकी दृग्-कजरालीं ।।७०।।

झील थीं फीकीं,
नीलीं आँखें जिसकी स्वयं सरीखीं ।।७१।।

शर्माया हार शंख,
देख सहज श्रृंगार कण्ठ ।।७२।।

लगा चाँद को, मैं ऐसा वैसा,
रूप अनोखा ऐसा ।।७३।।

कुल मिला के,
घुटने सुन्दरता ने टेके आके ।।७४।।

ऐसी वो हाव-भाव दिखालाती,
जै समक्ष आती ।।७५।।

रख नासाग्र नैना,
फेर रहे ये माला जै-सुलोचना ।।७६।।

लो थिरकाती पग,
आगे उनके मटकाती दृग् ।।७७।।

पर पलक भी,
उठाई उन्होंने न पलक थी ।।७८।।

हार उसने,
कुचेष्टाओं से चाहा जीतना उन्हें ।।७९।।

वे जल भिन्न पद्म ग्रहस्थ,
ओढ़े थे मात्र वस्त्र ।।८०।।

देव ड़िगता न उन्हें देख,
खोने लागा विवेक ।।८१।।

जोड़ क्रोध से नाता,
रूप अपना रौद्र बनाता ।।८२।।

कर ली लाल-लाल अंखिंयाँ
तान ली भृकुटिंयाँ ।।८३।।

श्वेद सीकरों से रोम गीले,
किये नाखूँ नुकीले ।।८४।।

कीं वो आवाज भयंकर,
अजि जो नवाजे डर ।।८५।।

पै उन्हें डिगा न पाया,
समेटता अपनी माया ।।८६।।

फिर क्या था, दृग् डबडबाता,
पास उनके आता ।।८७।।

और कहता देवता ! दे दो माफी,
हुई गुस्ताखी ।।८८।।

बाकई जहाँ दोई,
न छाप-आप शीलवाँ कोई ।।८९।।

तलक स्वर्ग फैली ज्यों खुशबु,
आप त्यों ही हूबहू ।।९०।।

और और गा गुणगान,
करता देव प्रस्थान ।।९१।।

वक्त इसी,
आ जाते आकाश मार्ग से एक ऋषि ।।९२।।

तेबीसवां रंग

जै सुलोचना,
न थके सराहते भाग अपना ।।१।।

छुआ आसमां,
उन्हें लगा, करते ही परिक्रमा ।।२।।

फर्सी सलामी दी,
उन्होंने पूजन फिर स्वामी की ।।३।।

और आ दोनों बैठे विनत,
पाने वचनामृत ।।४।।

अरिहंताणं,
णमो सिद्धाणं,
लोए सव्व साहूणं ।।५।।

कर ओंकार का स्मरण,
बोलने लागे श्रमण ।।६।।

‘ही’ से है जुड़ा कहाँ
धरम ‘भी’ से है जुदा कहाँ ।।७।।

डर से मानौ, मर जाता
धर्म तो जीना सिखाता ।।८।।

कहें केवली शिव भूति,
केवल भाव कीमती ।।९।।

छोड़ना मांस कौए का भी,
बनने धार्मिक काफी ।।१०।।

किसी को तंग न करना,
केवल-धर्म इतना ।।११।।

सद्धर्म माँ की सी गोदी,
किसी एक की न बपौती ।।१२।।

नन्तों का कैसे कल्याण,
होता जो न धर्म आसान ।।१३।।

बड़ा आसान सा काम है,
उसका धर्म नाम है ।।१४।।

राश ‘किरण आश’
धर्म सुदूर अंध-विश्वास ।।१५।।

मिटाये कण्ठों की प्यास जो,
धर्म के काफी पास वो ।।१६।।

जेबे-गरीब बना आना गरम,
ऊँचा धरम ।।१७।।

दे पंछी आना आब-दाना
और क्या धर्म बता ‘ना’ ।।१८।।

उघरे तन ढ़क आना,
धर्म पानी बचाना ।।१९।।

हलक भूखे, उतार आना कोर,
धर्म न और ।।२०।।

दुख देता है मिटा
धरम सुख देता है भिंटा ।।२१।।

प्रत्यक्ष शिव नाव,
धरम वृक्ष की घनी छाँव ।।२२।।

धर्म आसान,
करना उड़द के छिलके दान ।।२३।।

दे सीझ उल्टे-सीधे बीज वसुधा
धर्म वा…सुधा ।।२४।।

किसी की भूख मिटा पाया,
धन वो, और तो माया ।।२५।।

पुल तारीफ के बांधे भाई सगा,
धर्म और क्या ।।२६।।

उठना अच्छे से बैठना आ गया,
धर्म और क्या ? ।।२७।।

काँटों में फूल सा रहना आ गया,
धर्म और क्या ? ।।२८।।

मिश्री घोलना, हो जब भी बोलना,
धर्म और ना ।।२९।।

मम्मी पापा को गम छुआ,
बस छू धरम हुआ ।।३०।।

छोड़ ना और ना
पहली मछली, धी-‘भी’ विरली ।३१।।

जर्रा भी इच्छा निरोध,
‘हुआ’ धर्म ‘कि अविरोध ।।३२।।

पत्थर नहीं तोड़ना,
धर्म टूटे दिल जोड़ना ।।३३।।

रहो सतर्क,
मत बहो लोगों के सुन कुतर्क ।।३४।।

हिंसा हवा ले जहाँ,
व्यर्थ अहिंसा हवाले वहाँ ।।३५।।

जमा…ना जीते तो हरायेगा
हारे जो जितायेगा ।।३६।।

‘हवाले-काफी’
माँगते ही मुआफी, हवा गुस्ताखी ।।३७।।

पूरे भावन-मन,
पूजन छू… ‘रे क्षण दो क्षण ।।३८।।

है नहीं कहाँ भीतर,
धर्म है ही कहाँ बाहर ।।३९।।

भरोसे पर के,
होंगे धर्म-लम्हें बोझ सर के ।।४०।।

चोर सिद्धाणं
मन्त्र
‘कछु ना जाणं, सेठ प्रमाणं ।।४१।।

चौबीसवां रंग

विद्या सहारे,
आये घर, वे कर तीरथ सारे ।।१।।

ऋषि देशना,
पै शान्त बैठने दे रही लेश-ना ।।२।।

रह-रह के,
गूँजे जाग जै जाग, कह-कह के ।।३।।

किसके जाने का गम,
आये साथ थे ही ना हम ।।४।।

किसके खोने का गम,
लाये साथ थे ही क्या हम ।।५।।

चार दिन का मेला,
परिन्दा उड़ चाले अकेला ।।६।।

कब हाथी दे होने अपना,
देखे भौंरा सपना ।।७।।

बिना आहट
हवा हवाले गुल-मुस्कुराहट ।।८।।

हा ! बिजुरी की कौंध-सी,
चंचल न चीज कौन सी ।।९।।

दृग् खुलते ही
सपना छू अपना दृग् मुँदते ही ।।१०।।

सौंदर्य देह,
चंचल, अवसर-सा निस्संदेह ।।११।।

छेद समेत अंजुल-पानी,
‘पल-की’ जिन्दगानी ।।१२।।

दल-कमल बिन्दु-जल-वत्,
बन्धु ! चपल जगत् ।।१३।।

गर्दिश के या खुशी के,
न एक-से दिन किसी के ।।१४।।

कब चींटियों को देख पाई मीन,
मौसम तीन ।।१५।।

ओर-ढ़लने के,
सूर्य साथ-साथ ही उगने के ।।१६।।

साल-गिरह और क्या ?
साल गिरी एक और हा ! ।।१७।।

लागी ‘रे एक और कस-गाँठ,
हा ! बरस गाँठ ।।१८।।

पलटने की ओर बढ़ी,
पलटी ‘कि बालू घड़ी ।।१९।।

देखा रेहट घड़ा,
भरा खाली हो, खाली हो भरा ।।२०।।

प्रापति संपद् विपद्
हा ! यहाँ घड़ी पेण्डुलम वत् ।।२१।।

छू पाप,
सम्पद् हा…थी जीमें केथवत्
साथी ! छू आप ।।२२।।

‘ई…धन’ बुझी कब आग,
न ‘भोग’-विषय त्याग ।।२३।।

ले लेती जाँ लौं पतंग,
कुछ ऐसा ही राग-रंग ।।२४।।

विषय भोग मोही,
चाहे न और काग निंबोली ।।२५।।

लो उड़ा, हुआ नहीं ‘कि सबेरा,
आ साँझ पंखिड़ा ।।२६।।

हा ! निर्बन्धन रहा मैं कबूतर,
घर-पिञ्जर ।।२७।।

नापें हम भी साध छत, वो गली,
जो छिपकली ।।२८।।

गाड़ी चलाने का गुमान,
थामे हा ! मैं भाँती श्वान ।।२९।।

‘वंश’ मैं थामे उसे,
हा ! कह रहा, ‘ये थामे मुझे’ ।।३०।।

कुछ न रहा घड़े अन्दर,
बना हहा ! बन्दर ।।३१।।

रख नजर अनाज,
किया फन्दा नजरंदाज ।।३२।।

जमीं न छू भी पाया बीज,
ले उड़ा ‘कि पन्छी बीच ।।३३।।

जमा…ना पौधे पाये पग,
‘कि मृग, आ… तरेरे दृग ।।३४।।

‘उड़ पंखी’ ले बैठी ही, छिप खल धी,
छिपकली ।।३५।।

दूर पराये,
बच्चे ले नागिन खा कच्चे स्व-जाये ।।३६।।

वाह वानरी,
नाक क्या पानी छुआ, छू बहादुरी ।।३७।।

सपने फल,
‘वंश’ पास केवल, कलहानल ।।३८।।

संयोग खुशी दे,
तो इष्ट वियोग, छीन हँसी ले ।।३९।।

चावल एक
कसौटी, न धी मोटी चावल ऽनेक ।।४०।।

फल गरल वाले,
हों प्राय: अच्छी ‘शकल’ वाले ।।४१।।

न लाठी
दिखे बिल्ली को, हमें’शा.. ही’ दूध-चपाती ।।४२।।

हा ! खरगोश समान,
रखे आँखों पे मैंने कान ।।४३।।

उड़े तोते,
छू नलिनी, उड़ते तो उड़े होते ।।४४।।

जाने परिन्दा, कब नौ दो ग्यारा,
नौ-द्वारा पिंजरा ।।४५।।

बचे तो, आगे फॅंसे,
हाथ यम के लम्बे सबसे ।।४६।।

भाय ! सराय, न गेह ही, देह भी
निसन्देह ही ।।४७।।

दी गवा ‘जन्म नृ’ मणि-पद्म-राग,
भगाने काग ।।४७।।

किया नृ जन्म चन्दन आग पास,
ले राख आश ।।४८।।

धागा पाने,
हा ! बिखेरे क्षण जन्म-नृ मुक्ता-दाने ।।४९।।

पंक प्रक्षाला,
हा ! नृ-जन्म-अमृत का ढ़ोल प्याला ।।५०।।

किया कोयला हा ! गोरा,
पा नृ-जन्म साबुन सोड़ा ।।५१।।

नृ जन्म रस,
पा पारस की ‘वंश’ परवरिश ।।५२।।

नृ-जन्म गंगा धार,
हहा ! पोतता रहा दीवार ।।५३।।

थी न मंजिल में ज्यादा दूरी,
बना मृग कस्तूरी ।।५४।।

गुब्बारे भरी वायु सी जिन्दगानी,
फानी ‘आयु -See’ ।।५५।।

जमाते एक और फिसले कंचा,
वैसी आकांक्षा ।।५६।।

सुबह वही साँझ भी दीखा,
बना बैल तेली-का ।।५७।।

डालता रहा करके स्नान रज,
समान गज ।।५८।।

थी चेहरे पे धूल, की सफाई ना,
पौंछा आईना ।।५९।।

लगा चेहरे चिकनाई,
हा ! धूल से की लड़ाई ।।६०।।

पकड़े जाना
ले ‘रिश्वत’ दे छूट आना, जमा…ना ।।६१।।

जमा…ना
तोड़ उसी जैसे और से गाँठ-जोडना ।।६२।।

जमा…ना, बेटी का है पराया-कुल
कहे बाबुल ।।६३।।

जमा …ना, निज जनक-जननी
दे बेटा मुखाग्नि ।।६४।।

है कहाँ मुट्ठी में कल,
कल मुठ्ठी ना गया फिसल ।।६५।।

कौन जाने, जॉं बचाने,
या फसाने बिखरे दाने ।।६६।।

पात-पाँत दे गया हा ! धोखा,
आ हवा का झोका ।।६७।।

गरीब को ही
न चुपड़ी नसीब अमीर को भी ।।६८।।

बाजे बजते बजते सुल्टे,
लगे बजने उल्टे ।।६९।।

रहता कोई अपना ही सगा,
जो दे जाता देगा ।।७०।।

अपना उल्लू सीधा कर,
जमा… ना रफू चक्कर ।।७१।।

न आते उड़,
पंछी पर लगते ही जाते उड़ ।।७२।।

है दूध में घी जैसे,
रहे देह में आत्मा भी वैसे ।।७३।।

क्षीर में नीर का है कितना अंश,
दे… बता हंस ।।७४।।

हो तुष तन छू,
चावल चेतन पा जाता खुश्बू ।।७५।।

नृ जन्म रत्न अमोल,
हाय ! बेंचूँ काँच के मोल ।।७६।।

लजीज क्या न चीज खा… ली
मन पे खाली का खाली ।।७७।।

नीचे पंखों के माँ सुलाये रहे,
जाँ अल्बिदा कहे ।।७८।।

‘जीभ’ के सिवा,
बीच बत्तीस दाँतों के कौन बचा ।।७९।।

चने के भाड़ से उचटना,
कोई खेल नट ना ।।८०।।

वैसे भी कहाँ आसां सफर,
और ढ़लान पर ।।८१।।

करे नाक में दम लोक की,
नहीं कम लोभ भी ।।८२।।

जमा…ना, सुख निन्यानौ छोड़े,
पीछे एक के दौड़े ।।८३।।

देने वाले जो साथ,
गोरे अपने काले हाथ ।।८४।।

बच भँवर,
किश्ती डूबे प्राय:, आ किनारे पर ।।८५।।

लेने जो आये यम,
भागें दवाएँ, दबाये दुम ।।८६।।

एक न किसी की चलती,
टाले न होनी टलती ।।८७।।

रहे ताबीज बँधे
ये जीव उड़े, बीच पहरे ।।८८।।

छोड़ बाबुल को,
कर जाना फुर्र, बुल-बुल को ।।८९।।

जोरु यहीं की साथी,
जो रुह बस वो साथ जाती ।।९०।।

अपनी ‘वह…ना’
शब्द का तो सुन भाई कहना ।।९१।।

जर्रा ‘कि आई खाँसी,
दें भिंजा पास माँ मौसा-माँसी ।।९२।।

फूफा फुप्पी,
हा ! बात-बात दे देते पकड़ा चुप्पी ।।९३।।

नाम की ही मा…’मी’
वैसे तो पुड़िया खाली इनामी ।।९४।।

स…खा खा…स हैं नाम के मात्र,
जब बेवफा गात्र ।।९५।।

अनुचर का क्या ठिकाना,
स्वारथ भरा जमाना ।।९६।।

बिन पीछि के,
खड़े पंक्ति पशु हा ! हॉं, वो भी पीछे ।।९७।।

कितना और क्या लूटना
सब है जब छूटना ।।९८।।

काया नीरोग पाना,
अंधे के हाथ बटेर आना ।।९९।।

बाहर पानी से निकला,
मेंढ़क साँप निगला ।।१००।।

था सुख पास
हा ! बना रहा में ही, इन्द्रिय दास ।।१०१।।

हर वक्त में,
भार उठाये रहा सिर मुक्त में ।।१०२।।

खग्रास ‘सूर से’
हम तो देखने के ही दूर से ।।१०३।।

कहीं न जाना है,
घूम फिर के, आ वहीं जाना है ।।१०४।।

जो अपना सो अंदर,
अन दर तो सपना ओ ! ।।१०५।।

जुड़ न, क्या किसी को जोड़ना,
जोड़ा जब छोड़ना ।।१०६।।

क्या कर लोगे भाग के,
न अपना आगे नाक के ।।१०७।।

बादल,
कुछ कहते-कहते लो चले बदल ।।१०८।।

परिन्दे, होते अण्डे देने
घौंसले न ‘कि रहने ।।१०९।।

भूल न चलें, उड़ना पर,
कैद परिन्दे उड़ ।।११०।।

हा ! आसुओं में, करता रात चन्दा
कैद परिन्दा ।।१११।।

जीते जी हो जो जन्मना,
तो लो दीक्षा के भाव बना ।।११२।।

काँटे ही काँटे
जिन्दगी घड़ी फूल तो बस बातें ।।११३।।

अमावस न आ शशि,
कहे सदा न रहे खुशी ।।११४।।

हहा ! विवाह को कहा,
गठजोड़,
न ‘कि बेजोड़ ।।११५।।

देर करो ‘न’ बहाना,
जाये भाव दीक्षा बह… ना ! ।।११६।।

‘पर’ लगने की देरी,
‘रे रक्खे न मायने दूरी ।।११७।।

वो चला गया
मेहमाँ सभी यहाँ बतला गया ।।११८।।

चालो निकल,
‘के धकेल निकाले जायेंगे कल ।।११९।।

पच्चीसवां रंग

भा भावनाएँ बारा,
लगा असार संसार सारा ।।१।।

पुत्र अनन्त वीर्य नाम,
भिंजाते उसे पैगाम ।।२।।

आँखों के तारे,
चले आओ तुरत ही पास हमारे ।।३।।

पता ! पा पिता सन्देश,
आया छोड़ काज अशेष ।।४।।

और ले भीने-भीने से भाव,
छूता पिता के पाँव ।।५।।

झुका आँखों को,
क्यों याद किया, बोला जोड़ हाथों को ।।६।।

विनय मोक्ष द्वार,
भरी जो तुझ में बेशुमार ।।७।।

बस वही पा सकूँ,
अपार सिन्धु-भौ सुखा सकूँ ।।८।।

इसी कारण,
ठानी ऋषि बनने की जा कानन ।।९।।

सो सारा कार्य भार,
सिर ले कर दे उपकार ।।१०।।

सभी भाईयों में तुहीं एक,
योग्य राज्याभिषेक ।।११।।

भर नैनों में अनन्त नीर,
बोला अनन्त वीर्य ।।१२।।

ना ‘जी
सँभाल न पाऊँगा मैं ये भार गादी पिता जी ।।१३।।

कुछ भी आता-जाता नहीं,
पिता श्री मैं नादाँ अभी ।।१४।।

प्रार्थना सुन लीजिये,
‘भाई-और’ चुन लीजिये ।।१५।।

लगा पीछे लो,
मुझे तो कमण्डल दिला पीछि दो ।।१६।।

मैंने किया ही मना ना, पीछे आना,
पै ‘पीछे आना’ ।।१७।।

छत्रिय वह,
ताने जो छत्र, वर्ग-त्रि बेवजह ।।१८।।

राजा खिवैय्या,
उसके बिना पार न प्रजा नैय्या ।।१९।।

राजा बागवाँ,
पा खिल-खिलाये जा प्रजा आसमाँ ।।२०।।

बगैर माँ के
खेवनहार कौन, नन्हीं सी जाँ के ।।२१।।

औरों के लिये, जहाँ दोई,
‘रे जीता विरला कोई ।।२२।।

मान ले मेरी बात,
और थाम लें प्रजा का हाथ ।।२३।।

मन मार के,
विनीत खड़ा नन्त वीर्य हार के ।।२४।।

पहना ताज,
बनाया उसे पिता ने महाराज ।।२५।।

कर तिलक कुंकुम,
धान शालि क्षेपे कुसुम ।।२६।।

पहनाया वो हार,
आया जो वंश क्रमानुसार ।।२७।।

दी खड्ग वह,
थी जिससे की जंग कई फतह ।।२८।।

सिंहासन पे बिठाया,
सनातन जो चला आया ।।२९।।

समाँ चन्दर,
था लग रहा सिर रत्न छतर ।।३०।।

चँवर मिस,
न किया अभिषेक सितारे किस ।।३१।।

सुमन माल,
लाया तो लाया कोई रतन थाल ।।३२।।

लग ताँता,
जो आता कुछ न कुछ, लाता ही लाता ।।३३।।

एक पाँत में
साजे बाजे बाजे ‘के एक साथ में ।।३४।।

जाते-जाते,
जै राजा, राजा नये ‘के बताते जाते ।।३५।।

देना रोजाना पानी-‘वक्त’
जिलाने रिश्ते दरख्त ।।३६।।

ताण्डव नृत्य,
मधुशाला…मंदिर तान वा नृत्य ।।३७।।

नैन तरेरे,
मधुशाला…मंदिर नैन त्रि तेरे ।।३८।।

मुंदे ‘रे भाग,
मधुशाला…मंदिर मुंडेरे काग ।।३९।।

शोर शराबा,
मधुशाला…मंदिर शोर न बाबा ।।४०।।

करे खोखला,
मधुशाला…मंदिर न दे को कला ।।४१।।

दे बिका मकां,
मधुशाला…मंदिर दे, बिका मकां ।।४१।।

खूब बदबू,
मधुशाला…मंदिर धूप खुशबू ।।४३।।

बेचैन मन,
मधुशाला…मंदिर चैन अमन ।।४४।।

कर्ज बड़ाये ।
मधुशाला…मंदिर कर्ज बढ़ाये ।।४५।।

जुँए की लत,
न छूटे, रहे जब-तक दौलत ।।४६।।

बगुले चाल वाली,
छी सिगरेट अंंदर काली ।।४७।।

रेट पहुँचे हाई,
सी ग्रेड थी क्यूँ मुँह लगाई ।।४८।।

जुड़े रिश्ता ‘डी’-रैंक से,
जुड़ते ही रिश्ता ड्रिंक से ।।४९।।

पड़ न ‘पीछे’, से पढ़,
न…शा शा…न जायेगी बड़ ।।५०।।

नशे की लत,
दौलते-शोहरते-दीमक हट ।।५१।।

नशे का हाथ,
पकड़ें ‘कि जकड़ें बुरे हालात ।।५२।।

घर की, शान्ति बाहर की,
दे नसा शव…’री नशा ।।५३।।

पड़ता नशे को न सिखाना,
घर का घर खाना ।।५४।।

आज तू खा,
ये जायेगा कल, तुझे भी स-गुट…खा ।।५५।।

जिसमें तम वा खूँ,
उसे लगाना मुँ: क्यों आखिर क्यों ।।५६।।

मीठे जहर नशे,
पता पड़ता न कब डसे ।।५७।।

वो-तल खोले,
मदिर जो मदिरा बोतल-खोलें ।।५८।।

करना नशा मत,
न झाँके न कौन-कौन शामत ।।५९।।

आज पाउच,
एक रोज आउच, क्यों आखिर क्यों ।।६०।।

दिलो-दिमाग करे खराब,
छोड़ो अरे ! शराब ।।६१।।

बेवक्त दाँतों को खोने की तैयारी,
खा…ना सुपारी ।।६२।।

जलाये, दिया कीमती पापा-मम्मी का खूँ
तम्बाखू ।।६३।।

छूना भी व्हीस्की,
है जीवन के लिये बड़ा ही रिस्की ।।६४।।

वक्त की करे न परवाह रत्ती,
हा ! ताशपत्ती ।।६५।।

‘जि बतलायें खुद ही,
क्या अच्छा है लेना चुटकी ।।६६।।

लाला करना नुकसान खुद का,
खा…ना गुटखा ।।६७।।

पान मसाला,
निकाले आन-वान-शान दिवाला ।।६८।।

शरीर भाँति भीम,
बना लकीर सा दे अफीम ।।६९।।

बिगाड़ कुछ न पाऊँगा, जो जा.. गा,
पलट ‘गाँ…जा’ ।।७०।।

लत-गलत,
झुकाते ही नजरें किनारा करें ।।७१।।

बन के सोती राक्षसी-वासना,
न कभी ‘लौं’ खोती ।।७२।।

दें सौगातें
स्व-देशी, ‘वस्तु’ विदेशी दे सिर्फ बातें ।।७३।।

निभाते वस्त्र सूती,
मौसम संग दोस्ती अनूठी ।।७४।।

न परदेशी हों
वस्त्र-अस्त्र-शस्त्र भी, स्वदेशी हों ।।७५।।

भुलाना
‘कर-कर मदद’ कभी न भूल जाना ।।७६।।

खजाने हक, किसी का बनता तो,
है जनता वो ।।७७।।

इतना देते जाना,
‘सेवकों को’ न पड़े चुराना ।।७८।।

डाले न ताले हों,
सभी एक जैसे पैसे वाले हों ।।७९।।

आराम देना,
जानवरन ज्यादा ना काम लेना ।।८०।।

कालाबाजारी,
सिर चढ़ पड़ने न लगे भारी ।।८१।।

सोने सुहाग,
‘चेहरा मुस्कुराता’ चाँद बेदाग ।।८२।।

खिला गुलाब,
‘चेहरा मुस्कुराता’ ‘जी लाजवाब ।।८३।।

जादुई चाबी,
‘चेहरा मुस्कुराता’ दे कामयाबी ।।८४।।

तीजे नयना,
और भींजे करुणा हो तो क्या कहना ।।८५।।

बेटे अंधेरे चिराग,
तो मुड़ेरे काग बेटिंयाँ ।।८६।।

बेटे दूज ए चाँद,
तो चौदवीं ए चाँद बेटिंयाँ ।।८७।।

बेटे बुढ़ापे की लाठी,
तो बुढ़ापे का चश्मा बेटिंयाँ ।।८८।।

जा पाठशाला,
बिटिया फैलायेगी कल उजाला ।।८९।।

ढ़ोलो भी जल कितना,
फल आते बिन ऋत ना ।।९०।।

लादे जो चढ़े जितना,
परेशाँ वो रहे उतना ।।९१।।

जब खरीदो तब चुनो,
फिर न किसी की सुनो ।।९२।।

रहे नींद में योग्यता,
उत्साह आ जगाये पता ।।९३।।

समझदार, समझे समझाये,
क्या समझाना ।।९४।।

नासमझ की न समझ में आये,
क्या समझा…ना ? ।।९५।।

जमा…ना ज्यादा ही कुछ दो…गला है,
मौन भला है ।।९६।।

दे जिन्दगानी
गो बड़ी स्वाभिमानी ले चारा पानी ।।९७।।

मितव्ययी गोशाला,
चाह न रही होती दो माला ।।९८।।

और शिवाला में क्या, सिवा बुत,
गोशाला अद्भुत ।।९९।।

श्याम गोशाला में,
‘टकराते’ जाम मधुशाला में ।।१००।।

समाँ निर्झर झिरे पय,
सो गोशाला ही देवालय ।।१०१।।

हो कैसा भी, दे कर अन्दर् गोरा प्याला,
गोशाला ।।१०२।।

कहा दिमाग खर्च,
गोशाला दिल ने कहा फर्ज ।।१०३।।

मत करना भूल,
छूने की फूल, कम न शूल ।।१०४।।

छोटी सी निशा,
लख सपना लिख दिन छोटा सा ।।१०५।।

विनय जहाँ रहती,
साधो जय वहाँ रहती ।।१०६।।

शूल फूल भी बाग में,
जो मर्ज़ी लो लिख भाग में ।।१०७।।

चीज कीमती छुई जाती,
आँखों से न ‘कि हाथों से ।।१०८।।

नहीं कसम,
उठाते पशु पाखी सही कदम ।।१०९।।

सोने में,
बीते वक्त आधा, पैरों पे खड़े होने में ।।११०।।

हमसायों का शोर…गुल,
परायों का शोरगुल ।।१११।।

जा पीछे खडे़ होते,
कक्षा दूसरी जो पढ़े होते ।।११२।।

मरके कडे़ होते,
कक्षा दूसरी जो पढ़े होते ।।११३।।

जाके ऊपर सोते,
कक्षा दूसरी जो पढ़े होते ।।११४।।

छल दृग् जल धोते,
कक्षा दूसरी जो पढ़े होते ।।११५।।

तुफाँ दुहरे होते,
कक्षा दूसरी जो पढ़े होते ।।११६।।

पाहन नौ से,
न खेलना किसी की भावनाओं से ।।११७।।

मधुमाखी जो संपदा,
भालू लूट लाते हैं पता ।।११८।।

महाभारत शिक्षा,
चलाना वाणी बाण न अच्छा ।।११९।।

बोलते नैना,
जर्रा साँचा प्रेम करके देखो ना ।।१२०।।

साँची भक्ति को आता जादू,
बोलते आँखों के आसूँ ।।१२१।।

यहाँ निकला म…द
द…म,
निखरा यहाँ आतम ।।१२२।।

साथी मुश्किलें,
आ नजर-अंदाज करके चले ।।१२३।।

चिल्ला-चोंट की हुई धीमे,
आ हम गये जमीं में ।।१२४।।

शोर न हल,
छोड़ श्वान गहल शीश महल ।।१२५।।

पाती नक्षत्र स्वाती लाया,
चरखा डाकिया आया ।।१२६।।

बेरोजगारी अमाँ कहाँ,
चन्द्रमा चरखा जहाँ ।।१२७।।

चरखा मित्र,
ले चाले गगन ज्यों पवन इत्र ।।१२८।।

संयम थोड़ा भी कम न,
क्या जुगनू चीरे तम न ।।१२९।।

पहले जोर, पुर-जोर साधो !
जो फिर हो, सो हो ।।१३०।।

न बना तब तक ‘वास्तु’,
जैसा भी बाद तथास्तु ।।१३१।।

दिशा दे दशा बिगाड़,
तब सही दिशा दीवार ।।१३२।।

बेचना छोड़
जमीर ‘धंधा’ और नाता लो जोड़ ।।१३३।।

भूलों की बातों को न देना तूल,
ले बना उसूल ।।१३४।।

हो सत् सह्य ना,
किसी को गिरा हुआ मत कहना ।।१३५।।

जरा सा चूके ‘कि खरोंच आ बसे,
रिश्ते काँच-से ।।१३६।।

आँसू पड़े न कल पोंछना,
वृद्धों से जा पूछना ।।१३७।।

खो जमीर,
न ले आना वेवक्त वक्त अखीर ।।१३८।।

सिर्फ न चूहे,
रहे बिलों में नाग भी, सो जानवी ।।१३९।।

कर्ज दो पटा,
बढ़ना ही वरना मर्ज लो मिटा ।।१४०।।

अगर पैंनी नजर,
तो सिखाती है चीज हर ।।१४१।।

नौ सीखिया न कौन,
किये चलिये गुनाह गौण ।।१४२।।

है साबुन ना
धूल हो, भूल तो है राम-धुन ना ।।१४३।।

कालिख लगी होगी कहीं,
‘रे कौन टोकता यूॅं ही ।।१४४।।

चेहरा दिखे अपना नहीं,
‘रे कौन टोकता यूॅं ही ।।१४५।।

रहो न खड़े वहीं के वहीं,
‘रे कौन टोकता यूॅं ही ।।१४६।।

विष झाड़ दो उखाड़ यहीं,
‘रे कौन टोकता यूॅं ही ।।१४७।।

अंगुली उठी छुई-मुई हटी,
न बनिए हठी ।।१४८।।

करें रियाज़ पाने जीत,
जीवन एक संगीत ।।१४९।।

जड़ से लड़,
जाते फिसल हाथों से फूल फल ।।१५०।।

मुझमें सब कहती की सबर,
मुझको वर ।।१५१।।

बढ़ रहे ना… खून
‘हो के भी’, जवां ठहर रहे ।।१५२।।

सछिद्र पात्र,
हा ! हाथ ‘पानी’ लाने का शोर मात्र ।।१५३।।

पानी सोखता जाता,
कम्बल होता जाता सबल ।।१५४।।

रहे अंधेरा तले,
‘दिया’ कितना भी बड़ा भले ।।१५५।।

नॉन मे नोन के समान,
ना कोन कोन भगवान् ।।१५६।।

जीना न सिर्फ अपनी थाती द…या,
या…द दिलाती ।।१५७।।

हो सरवर सरवर ना,
पद्म-नील मिलना ।।१५८।।

‘रे जलाती ही आग,
सो…ना निखार लाती भी आग ।।१५९।।

छिद्र न ताको,
‘माल पुआ’ लजीज भी, चाखो ।।१६०।।

बच्चे ही बच्चे,
‘झूठ’ पीछे होते निःसन्तान सच्चे ।।१६१।।

रसना छोड़ो,
बीज न बीच, फल कच्चे न तोड़ो ।।१६२।।

पगले… होते न,
‘बगले-मौन’
न ‘तोते उड़ते’ ।।१६३।।

और क्या ? स…खा
खा…स अपने आप को माने सिवा ।।१६४।।

‘बारिश’ बूँदें पकड़,
कब कौन है पाया चढ़ ।।१६५।।

सुनो तो मोरी,
ज्यादा से ज्यादा, पन ‘ति…जोरी’ बोली ।।१६६।।

होते तलक निधन,
कमाते ही रहो न धन ।।१६७।।

दूध में चीनी समा जाती,
क्या हमें ये कला आती ।।१६८।।

न बोलें,
फाल्स, बोलते ही फासले आ विष घोलें ।।१६९।।

सीपिका भले दीपिका नेक,
मोती ज्योति पे एक ।।१७०।।

स्वर वैशाखी नन्दन बांये,
जग भर सुहाये ।।१७१।।

भले कढ़ाई आई,
पहले शिल्पी सुई बनाई ।।१७२।।

सीखी ना आप करना वार,
तीखी भले कटार ।।१७३।।

काँधे अपने सवार,
‘होना’ हाथ अपने हार ।।१७४।।

दिया तले भी अंधकार,
दिल पे मत ले यार ।।१७५।।

ले चाबी दूजी दूजी बार,
दिल पे मत ले यार ।।१७६।।

बन्द न होते सारे द्वार,
दिल पे मत ले यार ।।१७७।।

काश ! हो जाता,
जीने वाला जगह-जगह रास्ता ।।१७८।।

ले जमा बाल मजदूरी न जड़
समान ‘बड़’ ।।१७९।।

एक दूसरे को बचायें,
जैविक-खेती व गायें ।।१८०।।

पेट नरम,
राखें जैविक-दाने जेब गरम ।।१८१।।

कोई पृथ्वी पे पीयूष,
तो जैविक-फलों का ज्यूस ।।१८२।।

देती जीवन,
जैविक-खेती दूजी तो सिर्फ धन ।।१८३।।

ग्रहस्थ सन्त हैं,
जैविक-कृषक दयावन्त हैं ।।१८४।।

कहती खाद रास्-आय-न् इक,
मुझे सिवा जैविक ।।१८५।।

वादाँ किसी से,
न करना विश्वास ज्यादा किसी पे ।।१८६।।

चुनना राहें नेक,
टिकी अनेक निगाहें देख ।।१८७।।

ताव जो छुये तनाव,
तो जा छूना वृद्धों के पाँव ।।१८८।।

छब्बीसवां रंग

लो जै कुमार
जाने लगें वन को पढ़ ‘नौकार’ ।।१।।

‘कि तभी
पुरजन, परिजन, आ घेरते सभी ।।२।।

अभी थे सब ही आलाप,
पै अब सिर्फ विलाप ।।३।।

तरबतर दृग् सुलोचना,
खोलती मौन अपना ।।४।।

कहती,
स्वामिन् क्या मुझसे, है हुई कोई गलती ।।५।।

मुख मोड़ के,
जो जा रहे हैं आप मुझे छोड़ के ।।६।।

न छोड़ने का जन्मों-साथ,
था वादा आपका नाथ ।।७।।

क्या भुला दिया ?
अब-तक हँसाया, क्यों रुला दिया ।।८।।

था आपका ही सहारा,
वृक्ष बेलि तारणहारा ।।९।।

ये ‘जि कहो ना,
क्या उड़ना मुश्किल ना पंख बिना ।।१०।।

दशा मछरी सी,
जल बिन आप के हमरी भी ।।११।।

पाऊँगी जी ना,
आपके बिना, जीना भी कोई जीना ।।१२।।

और स्वामिन् के जा थामती चरण
तर नयन ।।१३।।

उठा उसे,
जै ने किया अभिसिक्त, वाक् पीयूष से ।।१४।।

काई…न भले फिसले,
ठिकाना क्या ? पल अगले ।।१५।।

आ हवा किसे पता
किस फूल की लेगी जाँ, बता ।।१६।।

शेर तरेरे दृग्,
भला दिलेर, क्या डरे न मृग ।।१७।।

मोर बोले,
क्या छोड़े नाग चन्दन को होले-होले ।।१८।।

सुना, दीक्षा भौ-जल तारक तुम्बी,
चालो तुम भी ।।१९।।

‘री मानो चलो भी तुम,
तृष्णा होने वाली न कम ।।२०।।

कह इतना,
साधने मनोरथ, चाले अपना ।।२१।।

आगे-आगे जै-कुमार,
पीछे प्रजा सपरिवार ।।२२।।

कह थे रहे सभी एक साथ,
न जाईये नाथ ।।२३।।

कहा जै ने पा नगर सरहद,
‘जी’ गद-गद ।।२४।।

लौट जाईये,
आप लोग आगे न और आईये ।।२५।।

जंगल घना,
आगे सदा रहता ही डर बना ।।२६।।

तभी, बोलते सभी,
हमारे साथ चालें आप भी ।।२७।।

बोल पड़े जै कुमार,
छोड़ा मैंने तो घर-द्वार ।।२८।।

शान्त गभीर,
वही आपके राजा अनंत वीर्य ।।२९।।

मेरा ज्यों दिया साथ,
उनका भी न छोड़ना हाथ ।।३०।।

बड़े सहज,
राजा अनंत वीर्य दूजे सूरज ।।३१।।

समझदार,
राजा अनंत वीर्य उर उदार ।।३२।।

प्रत्युत्पन्न धी,
राजा अनंत वीर्य विद् विधी सुधी ।।३३।।

सेवा का उन्हें,
‘अवसर दे’ स्वात्म सेवा का हमें ।।३४।।

मन को मार,
घर आ जाते, सभी सपरिवार ।।३५।।

वीहड़ वन
लो पार, जै-कुमार निडर वन ।।३६।।

और बढ़ाते चरण,
जिस ओर समशरण ।।३७।।

हुये साथ जै कुमार,
भीड़ जाये थी बेसुमार ।।३८।।

और कोई हो भी तो कैसे,
नाम ही ‘केवल’ ज्ञानी ।।३९।।

लगा जै…कारे,
भगवन् वृषभ भौ सिन्धु किनारे ।।४०।।

तारण तर्ण,
जिन-वृषभ बिन कारण शर्ण ।।४१।।

भक्त वत्सल !
एक वृषभ-नेक प्रश्नेक हल ।।४२।।

दया निधान !
ऋषि वृषभ वृष दया-प्रधान ।।४३।।

चलते वक्त पीछे की हवा से,
श्री भगवन् माँ से ।।४४।।

सुनते,
‘के श्री जी अपनों में, औरों को भी चुनते ।।४५।।

और शरण दाता,
समोशरण नजर आता ।।४६।।

मान स्तंभित करने वाला,
मान-स्तंभ निराला ।।४७।।

दिशा प्रत्येक,
विराजे जिसमें श्री जी एक-एक ।।४८।।

छुईं सीढ़िंयाँ
पलक झॅंपी, ‘कि छू हुईं सीढ़िंयाँ ।।४९।।

दिश् चार,
मणी स्फटिक सीढ़ी बीस-बीस हजार ।।५०।।

छू भेद रात दिन,
था इतना ‘कि तेज रतन ।।५१।।

थे बैठे बैरी जन्म-जात,
आपस में साथ-साथ ।।५२।।

मेंढ़क अहि,
आस-पास वहीं, चित्-चोर मोर भी ।।५३।।

गो थी, शेर भी,
वही पास ही बिल्ली भी बटेरे भी ।।६४।।

दर्पण जैसी जमीं,
मन दर्प’न’ ऐसे आदमी ।।६५।।

रहे डालिंयों पे झूल,
ऋत-ऋत के फल-फूल ।।६६।।

नाट्य शालाएँ,
नेक करती नृत्य देव बालाएँ ।।६७।।

नटिंयाँ हस्त संचालन से,
जायें भौ-पार भासे ।।६८।।

हों मुक्ति वधु हर्षाश्रु,
भासी बर्षा गन्धोदक यूँ ।।६९।।

भौंरे गायन,
निरत ‘लता-वन’ पत्ते नर्तन ।।७०।।

ज्ञानावरण न रहा कल-सा,
था बना कलशा ।।७१।।

मंगल द्रव्य में बदले,
और भी कर्म अगले ।।७२।।

भृंगार मिस,
दर्शनावर्ण खोया लो, पाया जश ।।७३।।

खिलाड़ी मंजा,
मोहनी आया, उठ बन के ध्वजा ।।७४।।

रहा दर्प न,
कर्म वेदनीय था बना दर्पण ।।७५।।

हार समर,
आयु बना, छतर होने अमर ।।७६।।

खोया कमाने ‘नाम’,
बन चँवर आया ‘श्री-धाम’ ।।७७।।

गोत्र व्यञ्जन बन विलसे,
उठ उच्च-निम्न से ।।७८।।

उठाने झुका मस्तक,
अन्तराय हुआ स्वस्तिक ।।७९।।

वो घट-धूप मुख से,
धूम्र मिस पाप निकसे ।।८०।।

थे ऊँचे तीन कोट,
बीच तिनके, वृक्ष बहुत ।।८१।।

थी ध्वजाएँ भी,
हंस आदि चिह्नों से चिह्नित सभी ।।८२।।

भानु विशेष,
‘राशि’ अनुगृहीते ‘बारो’ जिनेश ।।८३।।

दुन्दभि बाजे,
मानो फट-मोहनी शब्द ही गाजे ।।८४।।

देख लक्ष्मी को चपल,
आसन से छुआ कमल ।।८५।।

जो छत्र-त्रय ना,
था विगत रोग क्षय चन्द्रमाँ ।।८६।।

बुलाएँ,
सभी को अशोक वृक्ष की चल शाखाएँ ।।८७।।

फैलायें जाति मगध देव वाणी खुश्बू,
ज्यों वायु ।।८८।।

द्यु-पूजा
‘धर्म चक्र’ मूर्तिमान जिन शासन दूजा ।।८९।।

‘गुणित-आठ चार अमर,
‘वर्गचार’ चँवर ।।९०।।

आभामण्डल मिस,
था आया भान, तज तपिश ।।९१।।

भगवन् वाणी,
भाँति स्वाति-पानी जी जाती समाती ।।९२।।

क्या बालकों को,
बहाने मिठाई, न दे माँ दवाई ।।९३।।

प्रश्न जाते खो,
औ ! समोशरण में आके तो देखो ।।९४।।

पाप रोमांच के बहाने,
बाहर है लागे आने ।।९५।।

क्यों ? क्योंकि, गई मिल,
तलक अब थी जो मंजिल ।।९६।।

जगत् गुरु,
श्री जी आदि देव पुरु, हुये रूबरू ।।९७।।

लागी दृग् जल धार,
जो आई श्री जी पाँव पखार ।।९८।।

शब्द पुष्प के गुण डोर,
गूँथी जै-माला बेजोड़ ।।९९।।

आया शरण में,
शिशु दे जगह दो चरण में ।।१००।।

लो अपना,
लो बना अपना नहीं और सपना ।।१०१।।

रख साथ लो,
अपने हाथ में, ले मेरा हाथ लो ।।१०२।।

है तुम्हें जाना जहाँ,
ले चालो हमें भी जाना वहाँ ।।१०३।।

एक से भले दो,
एक से रास्ते, ले साथ हमें लो ।।१०४।।

काम काम हमेशा,
‘करेंगे’ न कभी परेशाँ ।।१०५।।

रत्ती न मेरा भार,
नैय्या, लो कर हमें सवार ।।१०६।।

दो ललकार ‘ना’
भूला, संग भूलों के दहाड़ना ।।१०७।।

दो दिखा राह घर की,
अर्हन् जी न और अर्जी ।।१०८।।

न नाम ही जै,
ले चालो दिखलाऊँगा, करके विजै ।।१०९।।

जाये श्मशान ये,
साथ ‘शं’…शान से, दो वर इसे ।।११०।।

सत्ताईसवां रंग

फूटा अमृत झरना,
श्री जी-मुख धार करुणा ।।१।।

लगी खिरने,
वाणी सुन प्राणी, ‘भौं’ लगे तिरने ।।२।।

गेही दूसरा विदेही रास्ता,
लगे बताने शास्ता ।।३।।

होने संतोषी
‘विचार धारा’ लागो बोने सन्तों सी ।।४।।

‘रे बोलें ही न,
साधो ! बोले तो बोले, न तोले बिना ।५।।

‘रे चालें ही न,
साधो ! चाले तो चाले, न देखे बिना ।।६।।

रे जीमें ही न,
साधो ! जीमे तो जीमे, आसक्ति बिना ।।७।।

साधो । सोते ही न
सोते तो सोते, न कर्वट बिना ।।८।।

फिर देखना,
दे…बता, राग किये घर कितना ।।९।।

और ‘गलती’,
चल…सँभल न ‘कि ‘मोर’-गलती ।।१०।।

आनन से,
‘न सिखाते’ सन्त कब आचरण से ।।११।।

नीचे पात्र में, देखो पहले प्राणी,
फिर लो पानी ।।१२।।

पुन: जीमने तक,
‘कि हो जी पाना, इतना खाना ।।१३।।

बदलें फल में,
पत्थरों को, ‘साध’-तरु पल में ।।१४।।

चिंवटी जिह्वा जिसने ली,
मंजिल पा उसने ली ।।१५।।

मितव्ययता साक्षी,
‘कि कमण्डलु साथी सन्त का ।।१६।।

सन्तों के पास For…Give.
और क्या सिवा Forgive. ।।१७।।

Fee की न बात, फीकी न बात,
सन्त सोने सुहाग ।।१८।।

दें बेहिसाब,
सन्त लें हिसाब से, न ‘कि साब-से ।।१९।।

औ ! कमण्डल,
कखहरा पढ़ा, हा ! मण्डल और ।।२०।।

लगा चेहरे पे चेहरा आना,
न सन्तन बाना ।।२१।।

दंश मारना ही नहीं,
सन्त दें खों, फुस्कारना भी ।।२२।।

अपना गम
‘न गिने’ साध कम, पराया गम ।।२३।।

हों बँधे हाथ,
सन्त-महन्त खुल्ली हो मुट्ठी-आँख ।।२४।।

‘ही’ रसिकों में,
‘खो …जा’ नाम-‘साध भी’ मिला न हमें ।।२५।।

लेते बच्चों से भी,
सीख-साधु देते बुजुर्गों को भी ।।२६।।

बुरा बोने से,
डरते साधु न ‘कि बुरा होने से ।।२७।।

इतर भद्र
‘साध’ ‘कि दिखते ही न पर छिद्र ।।२८।।

अँगूठे पोरों पे फेरते ही रहें,
‘सज्जन’ कहें ।।२९।।

जिया ही जीते हैं,
श्रमण दिया ही खाते पीते हैं ।।३०।।

तिजोरी न गो ‘री,
‘साध’ पड़े तो क्यों करना चोरी ।।३१।।

जुड़ा ‘कि साधु ‘शब्द’
कहें वासना ‘साधु-वास’…ना ।।३२।।

लोंच के…श स…के बाल भी कर,
लो बाँध कमर ।।३३।।

कान दीवार से, सटा के सुनना,
साधु गुण-ना ।।३४।।

स्वाद चुगली,
‘महामना’ आज भी बना पहेली ।।३५।।

ताँक-झाँक,
न करते कभी सन्त, गंदा मजाक ।।३६।।

यहाँ-वहाँ की बातों में,
ले रस… ना ‘साध रसना’ ।।३७।।

सन्दल
‘नागा’ साध प्यारा त्यों पीछि व कमण्डल ।।३८।।

दकियानूसी से,
रहे दूर सन्त काना-फूसी से ।।३९।।

दातौन,
करें ही नहीं सन्त कभी, दाँतों को गौण ।।४०।।

दूर हाथों से,
छुये ‘न चीज’ और साधु आँखों से ।।४१।।

जो कचोटें,
दें निकाल साधु छोटी-छोटी वो खोटें ।।४२।।

कक्षा दूसरी पढ़े-लिखों में आते,
साधु बताते ।।४३।।

सिर तनाव न लेते,
साधु रेत नाव न खेते ।।४४।।

हंसी कतार में आते,
साधु वंशी-चैन बजाते ।।४५।।

तीनों नैनों में,
झलकती करुणा, साधु वैनों में ।।४६।।

गिरें, गिरायें न नजरों से,
साधु मदरसों से ।।४७।।

पलकें नैना,
साधु पहने है ना मल के गैंना ।।४८।।

अट्ठाईसवां रंग

पा तीर्थकर प्रभु जी से पन्थ,
जैं हुये निर्ग्रन्थ ।।१।।

तत्क्षण,
दिये उतार थे उन्होंने वस्त्राभरण ।।२।।

‘जि कमण्डल साधारण,
ली पीछि असाधारण ।।३।।

मददगार बड़ी पीछी,
उजाला ले जो दृग् मीची ।।४।।

बताता पल-पल,
कमण्डल जो जल, तो कल ।।५।।

बिछौना धरा,
और आज से अब नभ चादरा ।।६।।

पानी पात्र था,
एक और कहो तो पाणि पात्र था ।।७।।

खड़े हो लेना आहार,
वो भी दिन में एक बार ।।८।।

करते देर-रात जुगाली,
मना संध्या दीवाली ।।९।।

हुये इतने हल्के,
बैठाया जगत् ने पलकों पे ।।१०।।

मिट्टी पानी है ही हवा,
‘हित सन्त’ नाहक दवा ।।११।।

उड़ाई किसी ने हँसी,
किया हँस के उसे वशी ।।१२।।

रक्खें कदम,
आहिस्ते-आहिस्ते पा कण्टक रस्ते ।।१३।।

आँखिंयॉं बड़ीं थीं,
पै शरारतें, जा दूर खड़ीं थीं ।।१४।।

रंग दीवाल न चुराया,
कानों ने रंग जमाया ।।१५।।

नासिका जो,
न अब गंध विशेष उपासिका वो ।।१६।।

जिह्वा चाखे,
पै चीज लजीज भी या नहीं, ना ताँके ।।१७।।

था ही न और वाहन,
आने-जाने सिवाय मन ।।१८।।

खींचा यूँ अक्स,
खिंचा चला आया, ‘कि हरेक शख्स ।।१९।।

हो किसी से न परेशाँ,
मुस्कुराते रहे हमेशा ।।२०।।

नेह निस्पृह विरला,
हुये हवा शिकवा-गिला ।।२१।।

बुलाया किसी ने, दे स्नेह असीम,
‘कि आये जीम ।।२२।।

दे आशीर्वाद दिया,
अभी प्रणाम भी था न किया ।।२३।।

चालें देख के जमीन चार हाथ,
नोकार साथ ।।२४।।

‘भावी भगवन्’ धारें गेही भेष,
दें किसे आदेश ।।२५।।

अपने हाथ का,
‘स्वाध्याय’ मंत्र-नौकार रात का ।।२६।।

सो गये,
गई रात ‘आधी सी’ रही, उठ लो गये ।।२७।।

साक्षी भगवन्
करते संध्यावन, प्रतिक्रमण ।।२८।।

रक्खें मूँद के नैन,
प्रायः यही तो, छीनें जो चैन ।।२९।।

मान दुख को नगण्य,
धन्य ‘हुये’ अनन्य ।।३०।।

दुख कमती सुख, कालम डाल,
हुये निहाल ।।३१।।

फेर बढ़ती और नजरिया,
दी बिखेर ईर्ष्या ।।३२।।

पा जागी-जागी जिन्दगी,
रह गई ठगी सी ठगी ।।३३।।

हुये जर्रा भी क्या असावधान,
लो पकड़े कान ।।३४।।

निर्भीक जिया,
था, तब तो सब को निर्भीक किया ।।३५।।

बन ऽनेकान्त पुजारी,
थी हारनी ही, हट हारी ।।३६।।

किस की फ़िक्र,
है ही न आगे-पीछे, किसी का ज़िक्र ।।३७।।

जाने भीतर,
तड़फते मछली से, आ बाहर ।।३८।।

आना-कानी को,
थी दे तिलांजली दी, खींचा-तानी को ।।३९।।

उपल नाव को,
थी दे जलांजली दी, दुर्भाव को ।।४०।।

प्रात का प्रात,
राखते लेखा जोखा, रात का रात ।।४१।।

माह-दो अभी, समय शेष,
फेंके उखाड़ केश ।।४२।।

न ऐसा पल आये,
कषाय चुरा ‘कि पल पाये ।।४३।।

ढ़लने साँचे ‘साँचे’
दिये जबाब ‘भी’ तर जाँचे ।।४४।।

लेते आखड़ी,
‘के न मिले तलक घर-आखरी ।।४५।।

नैन इनके,
और थे होते आँसु दुखियन के ।।४६।।

चिंता करने की बात क्या ?
आठों ही सभी साथ माँ ।।४७।।

कैसे उठते नयन दुबारा,
था मन को मारा ।।४८।।

पर्यूषण,
छू सूत्र जी, अनशन हुये पूरण ।।४९।।

ज्ञाँ-वृद्ध पना,
जागा ज्यों ही, भागा त्यों ही, गृद्ध-पना ।।५०।।

रहे करने से गल-हार,
दोष-धूम, अंगार ।।५१।।

थे जुदे जहाँ से,
नहीं कहते थे, उठो यहाँ से ।।५२।।

अर्हम् से
‘जोड़ बेजोड़ रिश्ता, दिया तोड़’ अहम् से ।।५३।।

‘दिया’ सभी को मान सम्मान,
भावी सिद्ध पिछान ।।५४।।

मान के विष का घूँट,
कभी छुआ ही नहीं झूठ ।।५५।।

हुआ छू वैर-विरोध था,
समाई ‘जी’ ऽनेकान्तता ।।५६।।

उपास जिस दिन,
किया प्रतिमा योग ग्रहण ।।५७।।

पद अंगदपन पाते,
थे खड़े जब हो जाते ।।५८।।

ध्यान में हुये यूँ मगन,
गुजरे ‘कि रात-दिन ।।५९।।

वृत्ति भ्रामरी,
जवाब लाजवाब, वृत्ति गोचरी ।।६०।।

मान अपना और दरद,
लाँघी ‘हदे-मदद’ ।।६१।।

उन-उदर रखा,
जीमा ही कहाँ, था सिर्फ चखा ।।६२।।

क्या कहें ?
रस परित्याग में, आता था रस इन्हें ।।६३।।

देहरी मन भी न लॉंघी,
गुस्ताखी मागी ‘कि माफी ।।६४।।

ज्ञान ध्यान से जोड़ा रिश्ता,
लम्बा ‘कि हो छोटा रस्ता ।।६५।।

छू सके न ‘कि अहंकार,
ली सिर विनय-धार ।।६६।।

‘इन-मोर’ ‘कि देखे,
आलस-अहि, घुटने टेके ।।६७।।

छू बर्षा… तरु तले,
‘अ, सि, आ, उ, सा’ नाम जप ले ।।६८।।

नदी किनारे,
पल-ठण्डी चटाई न ली गुजारे ।।६९।।

सूर्य सामने,
काल ग्रीष्म किया पूर्ण आपने ।।७०।।

न रहते थे टिक स्थान पे इक,
नदी माफिक ।।७१।।

मत अपना थे रखते,
‘वे’ हट ना पकड़ते ।।७२।।

नेह-दीवार ठुकराया,
दिखाना पीठ न आया ।।७३।।

माला, माईक, मंच से,
कोस-दूर थे प्रपंच से ।।७४।।

न सिर्फ ऋषी की,
थे काटते न वे बात किसी की ।।७५।।

समझा धर्म का मर्म था,
बनना ‘कि नो-कर्म ना ।।७६।।

थे न बोलते ऐसा साँच,
‘कि आये किसी पे आँच ।।७७।।

मठ में,
स्वप्न में भी थे न रहते वे, कभी गुट में ।।७८।।

वे मतलब,
थे रखते वे पग, अपने कब ।।७९।।

अंक एक भी पाया,
इन्होंने उसे गले लगाया ।।८०।।

गुत्थी मन की,
सुलझा देती थी, दी युक्ति इन की ।।८१।।

बेशकीमती, समाँ ‘जी’ धड़कन,
तीन-रतन ।।८२।।

सामायिक से पहले थे उगले,
पाप निगले ।।८३।।

न समझ के बोझ,
वैय्यावृत्ति थे करते रोज ।।८४।।

की सामायिक कई बार,
पीछे से पढ़-नौकार ।।८५।।

था विश्वास है मुट्टी में ‘किस्मत’
न ‘कि हथेली ।।८६।।

न फरियाद की,
भोगे भोगों की, न फिर याद की ।।८७।।

उन्होंने चाहा न देखना खेल,
दे ‘दिया’ दो तेल ।।८८।।

होती अपनी पूजा, सिद्धों की मान,
देते सम्मान ।।८९।।

मोरनी जैसा संस्पर्शना जादू,
थे ये स्पर्श गुरु ।।९०।।

मछली जैसा उठाना दृष्टि जादू,
थे दृष्टि गुरु ।।९१।।

टिटहरी-सा करना शब्द जादू,
थे शब्द गुरु ।।९२।।

कछुवी जैसा स्मरणना जादू,
थे वे स्मरण गुरु ।।९३।।

छूने आसमाँ,
अब अन्छुये लगे छूने खास ध्याँ ।।९४।।

टोली सींह पा ली,
ज्यों-ज्यों हम-जोली निरीहता की ।।९५।।

जी चाबी लगे टटोलने,
कपाट मुक्ति खोलने ।।९६।।

बिन लहर,
‘जी सरवर भाँत जिन प्रवर ।।९७।।

वाह वाह क्या खूब,
न तैर, अब ले रहे डूब ।।९८।।

और समय मात्र लगा समय,
उस पार जै ।।९९।।

जहाँ ‘सहज-निराकुलता’
रञ्च न आकुलता ।।१००।।

नुति, प्रनुति…
माँ सरसुति.

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