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आचार्य श्री पूजन

गुरु-पाद पूजन – 16

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 16

तुम भीतर आओ ।
तुम ‘भी’ तर आओ ।।
है जिनका कहना ।
वे तारण तरणा ।।
श्री गुरु-वर चरणा ।।
एक सहारे हैं ।
तभी पुकारे हैं ॥ स्थापना॥

ज्ञाता दृष्टा स्वरूप मेरा,
मैं किसका कर्त्ता हूँ ।
फिर भी हा ! पुर परिजन बोझा,
सिर अपने धरता हूँ ।
यह जल देखो कितना निर्मल,
रज को किये किनारे ।
श्रद्धा मेरी खोटी माथा-
टेके, द्वारे-द्वारे॥ जलं॥

नन्तानन्दी स्वभाव मेरा,
दुख की गंध कहाँ है ।
फिर भी झुक पर-द्रव्य, कमाया-
मैंने बन्ध महा है ।।
यह चन्दन है सुरभित कितना ,
महक उठे दश दिश में ।
हाय ! कतरनी जुॅंबा हमारी,
फर्क न मुझमें विष में ॥ चंदन॥

अविनाशी चैतन्य रूप मैं,
कब मरता, तन मरता ।
फिर भी मृत्यु समय हा ! भव-भव,
रहा आज तक डरता ।।
अहा ! अखण्डित अक्षत देखो,
लगते कितने प्यारे ।
हा ! परिणाम हमारे मनु, मति-
कल्विष दूज पिटारे ॥ अक्षतम्॥

चिदानन्द हूँ कर्मों की कब,
जकड़े मुझको कारा ।
हा ! संगत में बैठ कर्म की,
पाया कष्ट अपारा ।।
पुष्प सुगन्धित कोमल कितना,
कहाँ रंच वंचकता ।
हा ! मेरा मन उलझा इतना,
कहाँ बता मैं सकता ॥ पुष्पं॥

हूँ एकत्व-विभक्त अहा ! मैं,
जड़ से भिन्न निराला ।
जाने जड़ पर झुक झुक क्यों कर,
पिऊँ विषय विष हाला ।।
यह नैवेद्य मनोहर आहा !
नयनन अति सुखकारी ।
मोर प्रवृत्ति अन्दर बाहर,
इक सी कहाँ दुलारी ॥ नैवेद्यं ॥

सर्व विकार विवर्जित मेरा ,
वाना गोरा-कोरा ।
हा ! गफलत वश बना प्रमादी
करता तोरा-मोरा ।।
पास दीप धीरज तो देखो,
जले,न चीं करता है ।
हा ! निमित्त को खूब सुनाऊँ,
मेरा जी करता है ॥ दीपं॥

हा ! संकल्प-विकल्पों से कब,
मेरा अन्तस् भींजा ।
पर विमोह वश ‘खोल’ न पाया,
कस्तूरी दृग् तीजा ।।
धूप अहा ! ये कितनी अद्भुत,
जले गंध बिखराती ।
मति मेरी हा ! हन्त ! श्वान सी
मल पे लार गिराती॥धूपं॥

अरस अरूपी अस्पर्शी मैं,
भुवन भुवन बड़भागा ।।
फेर पड़ा कंचन-कामिनी हा !
धोऊँ साबुन कागा।।
फल ये मधुर रसीला कितना,
त्रिभुवन मन ललचाये ।
काल बहाने, बना बहाने,
हा ! हम गये ठगाये ॥फलं॥

शिव राधा मण्डित शिवपुर ही,
मेरा एक ठिकाना ।
सुख मिलता सा लगा उसी का,
गाया मैंने गाना ।।
दिव्य द्रव्य वसु कण-कण इसका,
सौरभ सुरभित भाई ।
किन्तु करीब हमारे धिक्-धिक्,
ईर्ष्यादिक ठकुराई ॥अर्घं॥

=दोहा=
जिसने गुरु की छाँव में,
पाई शरण विशेष ।
विघ्न घाम उसका दिखे,
जाता अन्तक देश ।।

॥ जयमाला ॥

गुरुवर नगन स्वरूप आपका,
जग असारता गाथा ।
आगे नाक हमारा क्या है,
क्या होगा कल क्या था ।।

पा मुस्कान तुम्हारी दुनिया,
इक शुकून पा जाती ।
सुना, खुशी जो भेजी जाती,
लौट-लौट आ जाती ।।

वाणी तव घी-मिसरी मिश्रित,
जगत् ताप विनशाये ।
क्या होता है खर्च, बोलने में,
मीठा सिखलाये ।।

देखूँ तुझे पढूँ या माँ श्रुत,
कोई भेद ना दीखे ।
छला सभी ने देखूँ अबकी,
हाथ पकड़ मॉं जी के ।।

निरख निरख चरणा धरना,
गाये दया तराना ।
किससे ना सम्बन्ध सहोदर,
ना होगा कल था ना ।।

निज को नित निरखा करती है,
भीतर अंखिया प्यारी ।
लगा टकटकी निरखा पर को,
तभी बना संसारी ।।

सिंह-वृत्ति सच यति-कुंजर की,
देती आप उपाधी ।
धन्य-धन्य सध सका कहाँ सब,
तुमने आतम साधी ।।

आप मूल-गुण पालन में कब,
होश गवाते अपना ।
हुआ बहुत ऊसर-भूमी में,
हा ! बीजों का बपना ।।

पहर-पहर जागृत रहने की,
शायद तुमने ठानी ।
सोते सोते व्याही किसने,
शिव-पुर राधा-रानी ।।

मन तेरा कब ज्ञान-ध्यान में,
रहता ना संलीना ।
उलझाये बिन श्रुत कब किसने,
इसको वश में कीना ।।

धन्य-धन्य गाऊँ गाथा तुम,
अन्त कहाँ आता है ।
फिर भी गाये बिन मेरा मन,
चैन कहाँ पाता है ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।

“दोहा”
जिसने अपने ध्यान में,
संयत हो अविराम ।
पधराये गुरु पद उसे,
मिला शीघ्र शिव धाम ।।

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