loader image
Close
  • Home
  • About
  • Contact
  • Home
  • About
  • Contact
Facebook Instagram

आचार्य श्री पूजन

गुरु-पाद पूजन – 19

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित

पूजन क्रंमाक – 19

मरणा-वीची क्षण ।
शरण जिन्हें सुमरण ।।
सु-मरण हेतु शरण ।
वे गुरु-देव चरण ।।
जयकारा गुरु-देव का…
जय जय गुरु-देव ।।स्थापना ।।

क्षमा करो गुरुदेव समय न,
निज आतम को दिया कभी ।
वरण आज-तक मरण समाधि-
हन्त ! ना मैंने किया कभी ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।।जलं।।

हन्त ! हन्त ! मैंने सुपात्र को,
दान दिया पर मद करके ।
कीना नित स्वाध्याय किन्तु हा !
समझा ना सुध-बुध धरके ।
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।। चंदन।।

रटा नाम तेरा तोते सा,
लेकिन हृदय न पधराया ।
क्या ये कीना शून्य भावना-
किरिया ने कब फल पाया ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।। अक्षतम्।।

की मैंने पर की निन्दा हा !
आत्म प्रशंसा की मैंने ।
खेल खेल में हा ! व्यसनों से ,
प्रीत जोड़ लीनी मैंने ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।। पुष्पं।।

जान बूझ-कर के मैंने हा !
छुप-छुप के अपराध किया ।
हा ! अपराध कराया मैंने,
अपराधी का साथ दिया ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।।नैवेद्यं।।

कामातुर हो मैंने नैना,
हा ! पर नारी से जोड़े ।
किये भले सत्कृत अंगुली पे ,
गिन लो बस उतने थोड़े ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।। दीपं।।

हिंसा में आनन्द मना हा !
रौद्र ध्यान मन भाया है ।
आरत में नित परिणति व्यापी ,
विषयन मन भरमाया है ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।।धूपं।।

हा ! हा ! की काला बाजारी ,
धंधा विसुध कहाँ मेरा ।
हाय ! बनाया मकड़ी जैसा ,
पञ्च सभी पापन घेरा ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।।फलं।।

जीवन निकल गया यूँ ही कब,
अष्ट-मूल-गुण अपनाये ।
सुदूर संयम, समकित के भी,
मैंने ना गाने गाये ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।।अर्घं।।

*दोहा*
सपने में भी दिख चले,
शगुन मानना मित्र ।
ये पालें कलि-काल में,
काल-चतुर्थ चरित्र ।।

॥ जयमाला ॥
गुरु विद्या रखवाया जिनने,
श्री गुरु तप मंदिर कलशा ।
किमि, इमि गुरु विद्या से इक दिन,
ज्ञान सिन्धु बोले सहसा ||

भईं इन्द्रियाँ शिथिल श्वास अब,
शुद्ध नहीं आवे मेरी ।
लगता त्रिभुवन जयी मृत्यु अब,
आ इक टक मुझको हेरी ॥

सो तुम ही अब प्रमाण मुझको,
सन्मृत्यु चाहूँ तुमसे ।
बिखरें संयम नियम पूर्व ही,
जाना मैं चाहूँ जग से |

पर कैसे समझाऊँगा मैं,
आप ज्ञान सागर स्वामी ।
मैं शिव मग हूँ, नया खिलाड़ी,
आप पुराने आसामी ॥

रे ! ऐसा मत सोच सयाने !
अन्त समय सुध-बुध खोती ।
बड़े-बड़े ज्ञानी ध्यानी की ,
परिणति तब कागा धोती ॥

अस्तु ! सुनो भो ! क्षपक कहाँ तुम,
अन्तक नगर निवासी हो ।
तुम तो हो चैतन्य स्वरूपी,
अजर-अमर अविनाशी हो ॥

मृत्यु समय ना डरना मृत्यु ,
चाबी है नूतन तन की ।
एक अकेली देने वाली,
जिन-गुण-सम्पद्-धन की ॥

अरे ! आप अरिहन्त सिद्ध की,
रटना एक लगाओ जी ।
विसर शयन,भज आतम अपनी,
दिवि निज सेज उठाओ जी ॥

इमि गुरु ज्ञान-सिन्धु सुध-बुध-धर,
निरत हुये निज लखने में ।
बख्तर पहने सुभट भॉंत अरि,
अन्तक राह निरखने में ।।

भासा अन्तिम-पल बैठे-उठ,
‘सहजो’ स्वर्ग-सिधार गये ।
विद्या को जाते जाते भी,
अनुभव सौंप अपार गये ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं।।

“दोहा”
श्रमण-ज्ञान-गुरु सा नहीं,
त्रिभुवन-माहीं अन्य ।
पा मृत्यु पे जय-सिरी,
नर-भव कीना धन्य ॥

Sharing is caring!

  • Facebook
  • Twitter
  • LinkedIn
  • Email
  • Print

Leave A Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

*


© Copyright 2021 . Design & Deployment by : Coder Point

© Copyright 2021 . Design & Deployment by : Coder Point