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मुनि श्री १०८ अजय सागर जी महाराज

सच्ची मातृभक्ति

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 
     कुछ बेटे ऐसे होते हैं जो माँ को रूलाते हैं और कुछ बेटे ऐसे होते हैं जो माँ के दुःख में रोते हैं । अपना जीवन न्यौछावर कर देते हैं, जिन्हें अपनी माँ की चिंता हैं ऐसे ही बेटे की कथा हैं । सन १९८० ई. में उड़ीसा में बड़ा भारी अकाल पड़ा था । अन्न के लिए लोग भूख से मर रहे थे । त्राहि त्राहि मची थी । एक परिवार में एक पुरूष, उस‌की स्त्री और दो बच्चे थे । जब तक हो सका उन्होंने घर में रखे अन्न से ही  प्राणों की रक्षा की । जब भोजन के लिए घर में कुछ न बचा और कहीं मजदूरी भी न मिली तो उस आदमी को बड़ी ग्लानी हुई ।
    उससे अपने बच्चे व पत्नि को भूखे मरते नहीं देखे जा सका । तो वह उन सबको छोड़कर कहीं चला गया । कहाँ गया कुछ पता ही न चला, बेचारी स्त्री परेशान, एक तो भूख ऊपर से पति का साया भी नही, तो उसने घर के बर्तन, कीमती सामान बेचकर कुछ दिन तो काम चलाया और बच्चों का पेट भरा । परन्तु जब घर का सभी सामान समाप्त हो गया, तो वह दोनों बच्चों को लेकर भीख माँगने निकल पड़ी । भीख में जो कुछ भी मिलता था, उसमें से पहले बच्चों को खिलाकर बचा खुचा खुद खा लेती थी और यदि कुछ न बचा तो पानी पीकर ही सो जाया करती थी । कुछ दिनों बाद वह स्त्री बीमार पड़ गई । अब उसका दस वर्ष का लड़का भी भीख माँगने जाने लगा । लेकिन उस भीख में जो कुछ मिलता वह कम होता था, उससे तीनों का पेट नहीं भरता था । जब बड़ा लड़का भीख मांगने जाता था तब उसकी माता ज्वर से बेसुध पड़ी रहती । एक दिन छोटा बच्चा भी भूख से मर गया । बड़ा लड़का जो कुछ भी भीख में पाता था अपनी माँ को खिला देता था । एक बार उसे कई दिनो तक अपने भोजन के लिए कुछ‌ नही मिला । वह भीख मांगने निकला, परन्तु उस दिन उसे किसी ने कुछ नही दिया । दोपहर के बाद वह एक सज्जन के घर पहुँचा, अपनी व्यथा कही । उस घर के स्वामी ने दयार्द होकर कहा मेरे पास थोड़ा सा भात है यदि तुम यहाँ बैठकर खा लो तो मैं तुम्हें वह दे दूंगा । लड़का बोला - महोदय मेरी माँ बहुत बीमार है कल दोपहर से उसे कुछ खाने को नही मिला है । वह मेरा रास्ता देखती होगी । आप दया  करके मुझे दो मुट्ठी भात दे दीजीये, मैं जाकर अपनी माँ को खिला सकूँ । घरके स्वामी ने कहा - भात बहुत थोड़ा है - तुम्हारा पेट भरे इतना भी नहीं है । तुम यहीं बैठकर खा लो, ले जाने के लिए मैं नहीं दूँगा । लडके की आँखो में आंसू आ गये, क्योकि वह स्वयं कई दिनो से भूखा था । भूख के मारे उसे चक्कर आ रही थी । उस से चला भी नही जा रहा था । उसके प्राण निकलने वाले ही थे । लेकिन उसे अपनी माँ की चिन्ता ही थी, कि उसका क्या हाल होगा । उसने कहा मेरी माँ जब अच्छी थी, मुझे खिलाकर अपने आप बिना खाये रह जाती थी । अब वह बीमार है मैं उसे खिलाये बिना मैं कैसे खा सकता हूँ । लड़के की मातृभक्ति देखकर वे सज्जन बहुत प्रसन्न हुए । उसे देने के लिए भात लेने घर के भीतर गये, लेकिन जब लौटकर बाहर आये तो उन्होंने देखा कि लड़‌का भूमि पर पड़ा है । उसके भूख के मारे प्राण निकल गये हैं । उस बालक ने अपनी माँ के लिए अन्न दिये बिना, भोजन स्वीकार नही किया । जबकि भूख के कारण उनके प्राण ही चले गये। धन्य है ऐसे माता पिता के भक्त बालक । कैसी भी महान विपत्ति क्यों न आये, हमें अपनी माता की सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है, उनके सुख दुख का सदा ध्यान रखना है । हम किसी भी तरह अपनी माता के ऋण से मुक्त नहीं हो सकते । माता के प्रति समर्पण भाव जिनवाणी के द्वार तक जाती है । 

वह बेटा माँ को याद करते करते दम तोड देता है ।
तू कितनी अच्छी है तू कितनी भोली है ।
प्यारी प्यारी है ओ माँ ऽ ऽ ऽ ऽ ॥घृ॥—२
ये जो दुनिया है, ये वन हैं कांटोंका
तू फुलवारी है ओ माँ ऽ ऽ ऽ ऽ ॥१॥
दुखने लगी है माँ तेरी आँखिया ऽ ऽ ऽ ऽ —२
मेरे लिये जागी है, तू सारी सारी रतिया
मेरी निंदिया ये अपनी निंदिया भी, तूने वारी है ओ माँ ऽ ऽ ऽ ऽ
अपना नही है तुझे सुख दुःख कोई —-२
मैं मुस्काया तू मुस्कायी, मैं रोया तू रोई
मेरे हँसने पे, मेरे रोने पर तू बलिहारी है ओ माँ ऽ ऽ ऽ ऽ
माँ बच्चों की जान होती है—२
वो होते हैं किस्मत वाले, जिनकी माँ होती है
कितनी सुन्दर है, कितनी शीतल है, न्यारी न्यारी है ओ माँ ऽ ऽ ऽ ऽ

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