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चुन'री लाडो ओढ़नी

चुन’री लाडो ओढ़नी-;51से60

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

(५१)

‘मुझसे हाई… को ?’

*ए ‘री सहेली
किरदार खुशबू वाला
चुन’री*

‘मेरे साथ क…वीता’

*सुबह सुबह
सिर उठा, सीना ताने रहने वाले
फूल
दूर दोपहर
बाद पहर ही
सिर झुकाते-झुकाते
झुकाते-झुकाते गर्दन
झुकाने लग जाते हैं कमर भी
सच…
कोई अक्षर खुशबूदार
तो एक दिलेनेक किरदार*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*एक बार की बात है
आषाढ़ी पानी की बूँदे ने
यात्रा प्रारंभ की
जा पहुँची माँ की कोख में
पता है बड़ी ही सावधानी
संयम की आवश्यकता थी
क्यों ?
क्योंकि माँ की कोख में
पहुँचने का मार्ग
बड़ा संकीर्ण था
और ऊपर आसमान से
गिराया जो जाना था
माँ ने तो मुख खोल रक्खा था अपना
पर जर्रा क्या चूके
‘के पास ही समुन्दर है
जो अपना सुरसा जैसा मुँह फलाये है
बिना आयास प्रयास के
पानी की बूँद
खारा जल कहला सकती थी
लेकिन इस बार
कुछ और ही ठान करके आई थी वह
अम्बर से बूँद पानी की
संभल-संभल कर
आ चली माँ सीपी के मुख में
पता है
माँ सीपी ने ओढ़नी सा
अपना पल्ला ढ़क लिया
लेकिन घुटन महसूस नहीं की
पानी की बूँद ने
बड़ा पूर्व पुण्य चाहिए
संयम का मार्ग अपनाने के लिये
अन्दर ही अंदर माँ सीपी
दर्पण सा बनाने लगी
तराशने लगी
पानी की उस बूँद के लिए
संस्कारित करने लगी
और एक दिन
बन चली वह पानी की बूँद ऐसी
‘कि
राजा ने खरीद ली
मुँहमाँगे दाम दे करके
अपनी राजकुमारी की नथ का
मोती बनाने के लिये
अब बाद में राजकुमारी पर
लोगों की नजर
पड़ती पहले उस मोती पर*

‘मैं सिख… लाती’

*चूनर संयम ओढ़ी
‘कि लगता ही लगता हाथ बेजोड़ी*

(५२)

‘मुझसे हाई… को ?’

*रोजाना
बिन्ना खीज
‘चुनरी’
न ‘कि त्यौहार तीज*

‘मेरे साथ क…वीता’

माँ ने
गुरु माँ ने
नजरें न मिलाई
‘हमनें ओढ़नी ओढ़ ली’

‘हमनें ओढ़नी ओढ़ ली’
पा ने
बाबा ने
आँखें क्या दिखाईं

फिर वो डली
यहाँ-वहाँ
पर ओ ! लाड़ली
हमनें किसको ठगा
यहाँ अपना न कोई सगा
हाय ये मतलबी
जमा… ना दोगला*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*दादा जी ने
बच्चे के जन्मदिन पर
भरा-पूरा अमरूद का एक बगिचा
भेंट स्वरूप उपहार में दिया
बच्चे ने एक दिन सोचा
क्यों ना
आज पौधों के लिए
पानी पिलाने की छुट्टी रहने दें
यदि काम चल जाये तो,
हर दिन परेशान नहीं होना पड़ेगा
तब पौधों ने कुछ नहीं कहा,
वे पहले जैसे ही मुस्कान देते रहे,
फल भी मीठे मीठे दिये
वृक्षों ने रोज की भाँति
पर यह क्या ?
बच्चा अब
कभी कभार ही आता है
पानी देने के लिए
और अब तो
फल भी पेड़ पर नहीं बचे
ऋतु जो चली गई थी

पर दादा जी ऐसे नहीं थे
वे हर रोज पेड़ पौधों की
बच्चों के जैसे साँज-संभाल करते थे
पेड़ पौधों भी बड़े खुश रहते थे

अबकी बार फिर से ऋतु आई
पेड़ में फल तो आये
पर पहले जैसी मिठास नहीं आई
दादा जी ने था पहला ही
अमरूद चखा
‘के समझ गये वह
वृक्षों के लिए इस बार
स्नेह प्यार दुलार नहीं मिला है
तब दादा जी ने बेटे से कहा
देखो
वृक्ष हमें क्या-क्या नहीं देते हैं
अपना हमारा भी तो
कोई फर्ज बनता है,
या नहीं
बेटा आज से
नियमित पानी देना वृक्षों के लिए
बच्चे ने अपनी गलती की
क्षमा माँगी
और खूब स्नेह से पेड़-पौधों की
सेवा में लग गया
वो कहते हैं ना
हाँ… हाँ…
चमन बरस पड़ा
सच
आने वाली ऋतु में
उसके यहाँ
इस बरस
चमन बरस पड़ा*

‘मैं सिख… लाती’

*हमें भी
हमारा ध्यान रखने वालों का
खूब ही नहीं
बखूब ध्यान रखना चाहिए*

(५३)

‘मुझसे हाई… को ?’

*तलक ‘मॉल’
मोल
चुन’री
चुनी
सुनी, अमोल*

‘मेरे साथ क…वीता’

*होता होगा मोल
कपड़े का
पर चुनरी अनमोल
वगैर
‘चुन’ के
खाली कप-प्लेट की
कीमत ही कितनी
कप प्लेट किसी ने
खाई हो तो बतलाओ
हाँ…चाटी जरूर जाती है
पर चुन-वाली
न ‘कि खाली
सच चुन’री
निराली*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*रुई को हवा उड़ाना चाहती थी
पर उड़ा न पाई
शिल्पी ने कर ली इकट्ठी
और चरखे पर चला
धागा बना
हथकरघे के ताने-बाने के साथ
बन चला कपड़ा
दुकान में बिकने आया है आज
बड़ा भाग रहा
सौभाग्य अहोभाग
‘के केशरिया रंग से रँगा गया
एक भगवान् के अनन्य भक्त ने
खरीद लिया उसे
मोल था सिर्फ नौ रुपये
टेलर चाचू ने झण्डे का रूप दे दिया
मंदिर बनके तैयार जो खड़ा है
आज ध्वजारोहण होना है
कार्यक्रम पंच कल्याणक के प्रारंभ में,
लगने लगी बोलियाँ एक नौ,
दो नौ
बढ़ते-बढ़ते पहुँची नौ-नौ
अभी भी थमी कहाँ ….
बोली लेने
मचले जो हैं जमीं और आसमाँ
सच
चमकीली चाँद सितारों वाली
किनार की नहीं
कीमत किरदार की होती है
यही कपड़ा रुमाल बन करके
बच्चों की
नोजी साफ करते करते भी
फट सकता था*

‘मैं सिख… लाती’

*कण्ठगत प्राण होने पर
आधे गिलास पानी की कीमत
पूरा राज्य भी हो सकती है*

(५४)

‘मुझसे हाई… को ?’

*बल निर्बल
त्रिशूल सी,
चुन’री
न शूल सखी*

‘मेरे साथ क…वीता’

*काँटा भी सुकुमार,
कोमल ही जनमता है
वह तो सौगंध उठाता है
जिसका सुगंध से नाता है
उस फूल की
‘के करूँगा साज-संभार
भगवत् आभार
‘मानकर’
न ‘कि बोझ भार
तभी दिल अपना कठोर करता है
भीतर से तो नारियल सा नरम है
बस यही सोच है
जो सोचने पर मजबूर करती है
‘के धरती पर
आज भी दया धरम है*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*सुबह सुबह उठते ही
एक बच्ची का मुँह बन गया
वह माँ से बोली
भगवान् ने
यह कान बड़े ही सुन्दर बनाये है
यह तो ठीक है
लेकिन माँ
सुबह से ही खुजलाने लगते है
इन कानों में
डालीं हुईं अँगुलिंयाँ
गंदी हो चलती हैं
यह इतना सारा मैल
कहाँ से इकट्ठा हो जाता है रोज-रोज
अच्छा होता
जो भगवान् कानों में मैल नहीं देते
तब माँ ने
अपने आँचल के एक छोर से
बच्ची की अँगुलिंयाँ साफ करके
कान में तेल डालते हुऐ कहा
बेटा पता है
‘कान का मैल’
ऐसा हम लोग कहते है
पर यह तो
भगवान् ने पहरेदार के रूप में
सैनिक खड़ा किया है
‘के छोटे मोटे विषैले कीटों से
हमारी रक्षा हो सके
ये छोटे मोटे विषैले कीट
इस मैल के दलदल में फँस
हमारे भीतर प्रवेश नहीं कर पाते हैं
और पीठ फेरकर
बाहर भागते दिखते हैं*

‘मैं सिख… लाती’

*यदि हम
ठण्डे दिमाग से सोचते हैं
तो रवि, कवि से भी
आगे पहुँच सकते हैं*

(५५)

‘मुझसे हाई… को ?’

*जाँ चुनने से रहे भले…
चुनरी चुन पहले*

‘मेरे साथ क…वीता’

*जिनके न रहने पर
जाँ की कोई कीमत न रहती
‘जहाँ की कोई कीमत न रहती
अँगुलिंयों पर गिनने लायक ही
वे चीजें
न ‘कि अनगिनती
जहाँ दोई
उस-कतार में सबसे आगे कोई
तो चुन’री
इशारे-पूर्वजों के
समझ सको तो समझो
पहुँच से हमारी….
वैसे कोई ज्यादा दूर नहीं
किरदार परी*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*एक सर्प था
वृद्ध हो चला था वह
दाँत टूट गये थे उसके
उसने वैद्यराज हंस बाबा से
दूसरे नये दाँत लगवा लिए थे
वह जैसे ही अपने बिल में आता था
अपने दाँत निकाल करके
एक सुन्दर सी डिबिया में
सुरक्षित रख देता था
और जैसे ही
घर से बाहर अपने कदम रखता था
सबसे पहले दाँतों को सलीके के साथ
अपने मुख में बिठाल लेता था
आज छोड़े से जल्दी में है वह
उसने सोचा
बस गया नहीं ‘कि आ जाना है मुझे
रहने देते हैं आज दाँतों के लिए
और वह बाहर निकल चला

सुनते हैं
डिबिया बुलाती रह गई
लेकिन सर्प ने एक नजर भी न डाली

सर्प ने
घर से बाहर रक्खा ही था
अपना कदम
‘कि दुश्मन से मुठभेड़ हो चली
सर्प घर भी नहीं लौट सकता
दुश्मन बिल्कुल सामने ही आकर
जो खड़ा है
उसने फुंकार छोड़ी
पर कोई बात न बनी
आज हराने की कगार पर है वह
नुकीले दाँत देखकर
दुश्मन जो दूर से ही
नौ दो ग्यारह हो जाता था
वह आज सिर पर चढ़ रहा है*

‘मैं सिख… लाती’

*जल्दी जल्दी में भी काँटों को
मुँह तोड़ जवाब देने के लिए
पैरों में नाल भले न ठोको
पर कुछ न कुछ पहिन करके तो
जरूर निकलो भाई*

(५६)

‘मुझसे हाई… को ?’

*कोई सत्, शिव, सुन्दर
तो चुन्नर
‘जगत् अन्दर’ *

‘मेरे साथ क…वीता’

*चुनरी
नहीं, इतनी भी बुरी
‘के ठण्डी-गरमी-बरसा
होने को एक अरसा
चुनना सुदूर
छूना तो दूर
तुमने उठा नजर
देखने की भी न जहमत उठाई
पल-पल-भर
लाड़ो ! ये अच्छी न बात
अपनों को रखना नहीं
अपनों के रहना चाहिये साथ
दिन रात*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*जंगल में एक दिन
‘सबसे सुन्दर कौन’
इस खिताब के लिये चुनाव होना था
बगुला इस कतार में
सबसे पहले खड़ा था
‘कि मेरे जैसा गोया रंग
किसी के पास नहीं
तोता लाल अपनी चोंच पर
नाज कर रहा था
चमरी अपनी पूँछ की प्रशंसा के पुल
बाँध रही थी
हिरणी अपनी आँखों पे गर्व कर रही थी
हाथी भी आया
अपने दाँतों की चमक
सूँड हिला-हिला कर दिखाता हुआ
निर्णायक के रूप में बैठे हैं
कछुआ दादा
और हंस बाबा
निर्णय सुनाया गया
काका-काकी के लिए
खिताब नवाजा गया सुन्दरता का
सभी ने पूछा
ये तो जंगल-राज सा लगता है
ये निर्णय हम लोगों के लिए
स्वीकार नहीं है
तब वन के राजा सिंह में कहा
सुनिये सुनिये,
रंग से सुन्दर तो सभी रहते हैं
कोई भी रंग अपने आप में कम नहीं है
पर परहित साधने वाला ही
वास्तव में सुन्दर है
ये काका-काकी
कोयल के बच्चों की खातिर
रात-रात सोते नहीं
दिन-भर अपनी चोंच भरते दिखते हैं
अद्भुत हैं यह*

‘मैं सिख… लाती’

*फल की इच्छा न रखते हुए
हर रोज
एक न एक नेकी का काम
जरूर करना चाहिए*

(५७)

‘मुझसे हाई… को ?’

*चुनरी राखो ‘री
सुनते हैं
बन्द मुट्ठी लाखों की*

‘मेरे साथ क…वीता’

*दुनिया का दूनिया कुछ हटके हैं
बेशकीमती
पन्ने को
काग… ज कह दिया
जिसने अपना सब कुछ दिया
उसे कहा
न… दिया
क्यों दिखाना अपनी मुट्ठी खोल
गोल दुनिया की बातें गोल-गोल
इसके कुछ अलग ही बाँट-बटखरे
खरे लोग खटके हैं इसे
तीक पे चढ़ा
मुट्ठी खुलवा लेगी
फिर अपने घर की कसौटी पर
चढ़ा कसकर
जमकर खिलखिला लेगी ही ही
छी छी*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*माँ धरती से
लोहे ने पूछा माँ
यह जंग जब देखो तब
मुझसे लोहा लेने फिरती है
क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है
कि जंग से जीत सकूँ मैं जंग

माँ ने कहा बहिन पारस मणि है ना
वह यदि तुम्हें छू देती हैं
तो तुम जंग से जीत सकते हो जंग
लोहा तुरंत गया पारस मणि के पास
पारस मणि बोली
मैं अभी छू देती हूँ
लेकिन ये क्या ?
लोहा लोहा ही रहा
पारस मणि बोली
क्यों ?
क्या जंग के लिए
साथ लेकरके आये हो

तब वह बोला
बहिन इसी से तो पिण्ड छुड़ाने के लिए
माँ धरती ने
आपके पास भेजा है
तब पारस मणि बोली
पानी हवा
से बच करके आओ

कुछ दिन संयम का वाना ओढ़ा लोहे ने
पर यह क्या
जैसे ही बाहर निकला
बहिन पारस मणि के पास आने के लिए
‘कि फिर से जंग खा गया
अबकि बार पारस मणि बोली
सुनो मेरे नाम तो यश मात्र है
माँ धरती बनायेंगीं तुम्हें सोना
तुम तो बस
माँ धरती सी क्षमा रखकर
अपना बजूद खो देना
फिर से मिट्टी बन चलना
जंग से जंग मत करना

जिस दिन मिट्टी बन चालोगे
माँ धरती तुम्हें
सोने में बदल देगी
बस माँ की शरण में
गहरे उतरते जाना
लोहे ने ऐसा ही किया
बड़ा खुश है वह चमक पाकर
लेकिन किसी के लिए
चमका नहीं रहा है*

‘मैं सिख… लाती’

*बाहरी हवा खाकर
जंग से जंग करते हुए
जर्जर होकर
किसी के आँख की किरकिरी बनना
अच्छी बात नहीं है*

(५८)

‘मुझसे हाई… को ?’

*भार अपार
पार होना
लकड़ी से खीख लो ना*

‘मेरे साथ क…वीता’

*एक नया नवेल अर्थ कराता हाथ
पहला आखर दीर्घ पढ़ने पर
शब्द अपवाद
‘के आप्… बाद
जीत रहा था पानी
भारी चीजों को डुबो डुबोकर
मैदान में लकड़ी क्या आई उतर
चित् खाने चार
‘के जलधार
बेशक,
लकड़ी ऐसी कैसी नहीं
बराबर लख ‘री
चुन ‘री*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*एक कन्या शाला की शिक्षिका थी
सहजोसरल नाम था उनका
वह एक बार बच्चों के लिए
बोर्ड पर लिखकर पढ़ा रही थीं
कि ऐसी कौन सी चीज है
जो भारी है
फिर भी पानी में डूबती नहीं है ?
उत्तर लिखता था लकड़ी
जाने ध्यान कहाँ था उनका
अक्षर तो यही लिक्खे
‘ल’ ‘क’ ‘ड़’
लेकिन लड़की लिख दिया
सभी बच्चे हँस पड़े
तभी शिक्षिका बोलती हैं
बेटा !
उत्तर ये भी सही है
सभी ने कहाँ कैसे ?

तब शिक्षिका कहतीं हैं
यदि लड़की
जो रखती है भार, एक नहीं दो-पट्टी का
पट्टी पत्थर की तो कम भारी
उस ओढ़नी से
पलक भर भी अलग रहती है
तो पानी
यानि कि लाज से
डूब मरती है
और चुनरी सहित रहती है
तो लाज
यानि कि पानी से
डूबने का सवाल ही नहीं उठता है
सभी बच्चिंयों ने
एक सुर में करताल दी*

‘मैं सिख… लाती’

*आ… भार चुन’री
ना भार चुनरी*

(५९)

‘मुझसे हाई… को ?’

*भीतर ज्योती
चुन’री
कुछ ऊँचे कद की होती*

‘मेरे साथ क…वीता’

*लम्बा तो पेड़ खजूर भी
ऊँचे-कद का होना अलग बात
जा दूर- दूर भी
उलाँघ सरहद
देश-विदेश आया देख
अगुलिंयों पर गिनने लायक ही
दिल-नेक
चुन’री भीतर ज्योती
हर सीप अन्दर न मोती
वैसे आसान बहुत ही
न होना स्वार्थी
‘रे बढ़ा कदम साथी*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*एक बच्ची थी,
जिसे किसी से भी
मुँह लग बात करने की
आदत लग चली थी
माँ बड़ी परेशान थी
कि क्या करें ?
तभी एक दिन कुछ
साध्विंयाँ गाँव से गुजरतीं हैं
माँ ने उनके सामने अपनी समस्या रखी
उनमें से एक वृद्ध साध्वी बोलीं
बच्ची की नाक में नथ पहना दे,
पर सुन बिटिया,
नग ऐसा वैसा मत लगवाना
दूसरा कोहिनूर ही हो वह
ऐसा जढ़वाना
घर आकर माँ ने ऐसा ही किया
अब लाजो !
इस माँ की बिटिया का नाम है जो
वह आईने के लिए पास पहुँची
गर्दन ऊपर करके
देखने की आदत जो थी इसे
उसे मोती दिखाई ही नहीं दिया
तब माँ ने कहा
थोड़ी गर्दन नीची करके तो देख
तब वह मोती बड़ा चमचमा उठा
फिर ?
फिर क्या
गर्दन ऊपर करके
देखने की आदत से छुटकारा मिल गया

अब लाजो !
इस मोति को दिखाने के लिये
अपनी गर्दन नीचे करके जो रखने लगी
सो उसे लोग सार्थक नाम
लाजो, नत-विनत
कह करके पुकारने लगे*

‘मैं सिख… लाती’

*मात्र चुनरी चुनरी नहीं
झूठमूठ ही चुन ‘री सही
विरली चुनरी*

(६०)

‘मुझसे हाई… को ?’

*ओढ़नी
चुन’री
मौसमे-मिजाज
अच्छा न आज*

‘मेरे साथ क…वीता’

*जान लेवा भी
हवाएँ
न ‘कि जीवन नैय्या खेवा ही
घर से बाहर सैर
मास्क बगैर
खतरे से खाली नहीं
बिना इत्तिला
ले कहलवा
‘काल’ अलविदा
आजकल
सौ-भाग
एक जाग
चुन’री*

‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’

*एक बार की बात है
अंग्रेजों ने
भारत विश्व गुरु जो रहा
यहाँ के निर्ग्रन्थ मति हंस गुरुजी को
अपनी भाषा के कुछ शब्दों को
भारत की भाषा से
मिलते-जुलते शब्द रखने के लिए
आमंत्रण भेजा
लेकिन बीच में
यह समुद्र जो पड़ता है
कोई भी सन्त जाने के लिए
तैयार न हुये
पाँव पाँव जो चलते हैं महन्त
मजबूरन उन्हें
एक विद्वान के लिए ले जाना पड़ा
वह विद्वान जाते समय
अपने गुरु एक दिगम्बर सन्त के
दर्शन करके गये

और विदेश से
आते ही यह विद्वान
सबसे पहले अपने
उन अपने गुरुजी के दर्शन करने आये
उन्होंने सारी बात बतलाई
अन्त अन्त में
जैसे ही उन्होंने कहा
कि मैंने संस्कृति का नामकरण
कलचर किया
तब गुरुदेव बोले
यह आपने क्या कर दिया
संस्कृति
कृति सतयुग की याद दिलाती है
और कल्चर
कलयुग का पक्षधर है
उन विद्वान ने
गुरु जी से प्रायश्चित लिया
विदेश खबर पहुँचाई
पर अब तक तो सारी डिक्शनरिंंयाँ
छपकर तैयार हो चुकीं थीं*

‘मैं सिख… लाती’

*हवाएँ
जहर भी घोलतीं हैं हमें
बनती कोशिश
सुरक्षित रहना चाहिए*

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