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कविता

कविता- मान

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

मान
(१)
खुद-ब-खुद
शब्द ही कर रहा है
जहॉं मान
वहाँ माँ न
और बिना माँ के
बच्चे की जिन्दगी
कटी पतंग सी
फटे-मृदंग सी

(२)
अहम्
मतलब सिर्फ हम
और शब्द ही रह रहा है
अर-हम
पीछे से
आप का पहला नम्बर है
भाई बड़ा अन्तर है

(३)
मैं क्या कह रहा हूॅं
प्रतिध्वनि खुदबखु‌द ही कह रही है
अहंकारी आत्मा
अहम् कारी आत्मा
और गो’री

(४)
शब्द घमण्ड कह रहा है
क-क्रोध से
ख-मान से
ग-माया से
घ-लोभ से
मण्ड-मण्डित हूॅं मैं
न गले लगाना हमें

(५)
मदिरा क्या मदिर करेगी
जैसा मद करते हैं
सच
हम हद करते हैं
यदि करना ही है मद
तो पीछे ‘द’ लगा के कर लो ना
किसने किया मना
खूब कर लो
मदद बखूबी कर लो

(६)
शब्द ही कह रहा है
साथ साथ अहं…कार आती है
जो किराये से ज्यादा तो
पेट्रोल खा जाती है
घाटे का सौदा है
वैसे समझदार को इशारा काफी
भाई कही सुनी की माफी

(७)
उधड़े रिश्ते सीने वाली
तान छेड़ते ही
खुद-ब-खुद
सीने का तानना हो जाता है
कतरनी ज़ुबान
और चलना सीना तान
ये तो जोड़ी ही नहीं बन रही है
क्यूँ ? कहाँ से की पढ़ाई
‘रे पढ़े भी या नहीं अक्षर ढ़ाई

(८)
नाम के लिये किये गये काम
सिर्फ नाम के लिये हैं
भाई,
कीजिये काम के काम
क्या भुला दिया
आम के आम
और गुठलियों के दाम

(९)
शब्द ही कह रहा है
खतरनाक
नाक से छेड़-छाड़ छोड़ दीजिए
लेने की जगह देने भी पड़ सकते हैं

(१०)
‘रे कुछ ज्यादा नहीं करना है
प्रथमानुयोग का
‘प्र’ लगाना है
और मान
प्रमाण हो जाना है

(११)
जाने कैसे हंस बुद्ध हैं हम
गुरु का नाम छिपाया नहीं जाता है
और गर्दन उठाते ही
गिरगिट हमारा गुरु है
ये सबको पता लग जाता है

(१२)
‘रे मनुआ
जमीन मत छोड़ना
पंखों को पर
मतलब पराया कहते हैं
और दादी-नानी की कहानियों में
सुना ही होगा हमनें
‘के पराधीन सुपने सुख नाहिं

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