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सहजो पाठशाला

सहजो पाठशाला – चत्तारि दण्डक

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

*चत्तारि दण्डक*

एसो पञ्च णमोक्-कारो,
सव्व पावप्-पणा-सगो ।
मं-गला-णं च सव्-वे-सिं,
पढमं ह-वई मं-गलं ।।

यह पञ्च नमस्कार मन्त्र
सभी पापों का नाश ही नहीं
प्र-प्रकृष्ट रूप से
विनाश करने वाला है
समस्त मंगलों में
प्रथम मंगल है

देखो
कपड़ा गन्दला हो जाने पर
फेंका नहीं जाता
साबुन सोड़े-पानी से
धोकर के पुन:
उपयोग में लाया जाता है
उसी प्रकार
यह आत्मा भी
पाप-कर्म रूप रज से
लिप्त हो जाने पर
णवकार मंत्र का साबुन लगते ही
उजला साफ-सुथरा हो जाता है

*मंगल*

यह मंगल
जो दो प्रकार का है
पारलौकिक
एवं लौकिक
सो अरिहन्त, सिद्ध,
आचार्य, उपाध्याय, साधु
स्वयं सिद्ध मंगल रूप है

महाभारत में
अर्धचक्री कृष्ण कहते है

आरोहस्व रथं पार्थ !
गाण्डीवं करे कुरू ।
निर्जिता मेदिनी मन्ये,
निर्ग्रंथा यदि सन्मुखे ।।

हे अर्जुन !
आरोहण करो रथ पर
गाण्डीव नाम धनुष हाथों में उठाओ
मैं मानता हूँ
यदि सन्मुख
मंगल रूप दिगम्बर निर्ग्रथ मुनि
आते दिख चले हैं
तो जीत सुनिश्चित है
हमनें सारी पृथ्वी जीत ली
ऐसा मानो ।

और लौकिक मंगलों में
कन्या, पीले सरसों, हाथी,
दूध पिलाती बछड़े के लिए माँ गो
नारी सिर पर रखे भरे कलश
आदि मंगल रूप है

सुनो,
शब्द
सब कुछ
द यानि कि देने वाला
यह मंगल शब्द से चारितार्थ होता है

मंगल मतलब
मम् + गल,
मम्, अहंकार, मैं का भाव
जो गला दे वह मंगल है
और भी देखिये
मंग यानि ‘कि
उमंग + ल यानि’ कि लाने वाला
वह मंगल है
छत्र-छाँव में धूप कहाँ रहती है
हाँ.. डूब अनूप कहाँ नहीं रहती है

सो झुके नहीं
‘के भर चला घडा
बन चला काम बिगड़ा
खुद ही कहता शब्द मंगल
मम् ‘गल’
यानि ‘कि बात मेरी मानो

जिन मत में यह मंगल चार है
चत्-तारि मं-गलम्
अरि-हं-ता मं-गलम्
सिद्-धा मं-गलम्
सा-हू मं-गलम्
के-वलि पण्-णत्-तो धम्मो मं-गलम्

इसके शुद्ध उच्चारण के लिये हमें
थोड़ा सा ध्यान रखना है
दीर्घ स्वर के बाद
यदि लघु स्वर है
तो दीर्घ स्वर थोड़ा सा खींचने पर
अपने आप ही
लघु स्वर सही उच्चरित हो चलता है
सो बोलिये
चत् ता…रि
अब देखिए अरिहन्ता है
अरिहन्त नहीं,
सिद्-धा है
सा-हू है
साहु नहीं
केव…ली नहीं
के…वलि पढ़ना है
पणत्तो नहीं
पण्-णत्-तो पढ़ना है
धम्मं नहीं
धम्मो कहना है
हाँ…
अब हुआ सही उच्चारण

*उत्तम*

उत् यानी ‘कि
ऊपर उठ जाना
किस से ?
तम
यानि ‘कि अज्ञान रूप अंधकार से,
सो जो प्रकाश देते हैं
लेकिन प्रकाश में आना नहीं चाहते हैं
ऐसे पुरु आदि चौबीस तीर्थंकर
गुरु आदि संत दिगम्बर
अगुरुलघु आदि
आठ गुण मण्डित सिद्ध अनन्त
और जगत् प्रसिद्ध धर्म माहन्त
‘मा’
यानि ‘कि नहीं,
हन्त
यानि ‘कि मारना

और सुनिये
बीजाक्षर भी
बहुत कुछ यही कहते है
‘उ’ बीजाक्षर
ईश्वर के प्रतीक स्वरूप है
यानि ‘कि अरिहन्त, सिद्ध
‘त’ बीजाक्षर
दया के प्रतीक स्वरूप है
यानि ‘कि अहिंसा धर्म
और ‘म’ बीजाक्षर
मुनि के प्रतीक स्वरूप है
यानि ‘कि नग्न दिगम्बर सन्त
उत्तम हैं

चत्-तारि लो-गुत्-तमा,
अरि-हं-ता लो-गुत्-तमा,
सिद्-धा लो-गुत्-तमा
सा-हू लो-गुत्-तमा
के-वलि पण्-णत्-तो
धम्-मो लो-गुत्-तमा

अब देखिये
लोगोत्तमा नहीं है
लो-गुत्-तमा पढ़िये
और अखीर में लोगुत्तमा नहीं है
लो-गुत्-तमो पढ़ियेगा

*शरण*

‘श’ कहता
शास्त्र दया करुणामयी शरण
‘र’ कहता
रिषभ आदि तीर्थंकर शरण
‘न’ कहता
नग्न दिगम्बर साधु शरण

और देखिये
शरण शब्द कहता है
शर यानि ‘कि बाण
न यानि ‘कि नहीं है शरण
‘व’ वजनदार अक्षर
रखते ही खुलता है राज
वाण
हाँ हाँ जिनवाण माँ शरण
और
‘व’ मतलब
वृषभ आदि तीर्थंकर शरण
‘न’ मतलब
नग्न दिगम्बर साधु शरण

एक और अर्थ देखिए
‘श’ से सत्य शरण
‘र’ से रत्नत्रय शरण
‘न’ से नवकार शरण है

सुनो प्राकृत भाषा में
‘श’ की जगह ‘स’ होता है
तब सर यानि दिमाग नहीं
हृदय रूप चिराग शरण है

चत्-तारि स-रणं पव्-वज्-जामि
अरि-हं-ते स-रणं पव्-वज्-जामि,
सिद्-धे स-रणं पव्-वज्-जामि
सा-हू स-रणं पव्-वज्-जामि
के-वलि पण्-णत्-तं
धम्-मं स-रणं पव्-वज्-जामि

देखिये पवज्जामि नहीं है
पव्-वज्-जामि है
अरिहंत नहीं है
अरिहन्ते है,
सिद्धे है,
साहू है,
धम्-मं स-रणं है
ओम्…

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