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जवाब लाजवाब आचार्य श्री जी

जवाब लाजवाब -183

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

सवाल
आचार्य भगवन् !
आप छह-छह घड़ी की,
बड़ी बड़ी सामायिक करते है
मुनिराजों के मुखारविंद से प्रवचनों में सुना है
हिलते, डुलते भी नहीं आप,
भगवन्
मनोवैज्ञानिक कहते हैं
‘कि हमारा मन वही काम फिर-फिर करता है,
तो रस कम होता जाता है,
जितना मीठा रसगुल्ला पहला लगता है,
उतना दूसरा, तीसरा नहीं,
सो भगवन्,
कभी झपकी सी आने लगे,
आप झूले से झूलने लगे,
सामायिक के वक्त,
तो कैसे समझाते हैं,
अपने मन के लिये, बतलाइये ना
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,

जवाब…
लाजवाब
सुनिये,
पूर्णता सत्य नहीं है यह
वस्तु अनेक धर्मात्मक होती है
देखा होगा आपने भी
नई-नई कलम हो
जब चलती है तो
लगता है मानो पन्ने रूप रास्ते पर,
कंकर-पत्थर डले हों,
यानि ‘कि खुरदुरा पन रखती है
फिर समय के साथ चलते-चलते
पाल बॅंधे नाव के जैसी
खुदबखुद ही तैरती सी दिखती है
आप भी ले अनेकान्त की आँखें,
जान सकते है सचाई
हा ! हा ! ‘ही’ दुखदाई
सो मैं मन से बार-बार रहता हूॅं
देखो हा ! हा ! ही ही दुखदाई
सो गम्भीर बन
ओ ! मन
ओम् न भूलो
झूलना तो भीतर झूलो
बाहर साधा जाता झूला
निन्दा के साथ
न ‘कि डूबा
बैठे-बैठे छलांग लगा
क्यों बतला रहा है
‘के गुरुकुल की जगह जाकर के
हैं स्कूल में पढ़ा
अभी समय
अय ! सदय-हृदय
हो भी जा खड़ा
‘भी’ भींजा
ई ‘भेजा’ तो अटकायेगा
कर…नाटक
और तुम छोड़ चुके हो
सुनो, कब तक खोलते रहोगे
सपने में मोक्ष का फाटक
लाज रख भी लो जरा
हो भी जा खड़ा
वैसे मुझे ऐसा, सपने में भी न कहना पड़ा है
मेरा मन कुछ हटके है
कुछ जुदा है
कखहरा दूसरी कक्षा में जो पढ़ा है
ओम् नमः
सबसे क्षमा
सबको क्षमा
ओम् नमः
ओम् नमः

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