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आचार्य श्री पूजन

गुरु-पाद पूजन – 961

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 
  • परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित

पूजन क्रंमाक 961

कल के अरिहन्त तुम
जिनमें गुरु कुन्द-कुन्द झलके
वो सन्त तुम
चलते-फिरते ग्रन्थ तुम
निर्ग्रन्थ तुम
जिनमें गुरु कुन्द-कुन्द झलके
वो सन्त तुम
कल के अरिहन्त तुम ।।स्थापना।।

न यूँ ही चढ़ा रहा,
मैं गंगा-जल
मुझे तुमने अपना,
मेरा भव-मानव किया सफल
चलते-फिरते ग्रन्थ तुम
निर्ग्रन्थ तुम
जिनमें गुरु कुन्द-कुन्द झलके
वो सन्त तुम
कल के अरिहन्त तुम ।।जलं।।

न यूँ ही चढ़ा रहा,
मैं गंध अमल
मुझे तुमने अपना,
मेरा भव-मानव किया सफल
चलते-फिरते ग्रन्थ तुम
निर्ग्रन्थ तुम
जिनमें गुरु कुन्द-कुन्द झलके
वो सन्त तुम
कल के अरिहन्त तुम ।।चन्दनं।।

न यूँ ही चढ़ा रहा,
मैं धान धवल
मुझे तुमने अपना,
मेरा भव-मानव किया सफल
चलते-फिरते ग्रन्थ तुम
निर्ग्रन्थ तुम
जिनमें गुरु कुन्द-कुन्द झलके
वो सन्त तुम
कल के अरिहन्त तुम ।।अक्षतं।।

न यूँ ही चढ़ा रहा,
मैं पुष्प कँवल
मुझे तुमने अपना,
मेरा भव-मानव किया सफल
चलते-फिरते ग्रन्थ तुम
निर्ग्रन्थ तुम
जिनमें गुरु कुन्द-कुन्द झलके
वो सन्त तुम
कल के अरिहन्त तुम ।।पुष्पं।।

न यूँ ही चढ़ा रहा,
मैं चरु श्रृंखल
मुझे तुमने अपना,
मेरा भव-मानव किया सफल
चलते-फिरते ग्रन्थ तुम
निर्ग्रन्थ तुम
जिनमें गुरु कुन्द-कुन्द झलके
वो सन्त तुम
कल के अरिहन्त तुम ।।नैवेद्यं।।

न यूँ ही चढ़ा रहा,
मैं ज्योत अचल
मुझे तुमने अपना,
मेरा भव-मानव किया सफल
चलते-फिरते ग्रन्थ तुम
निर्ग्रन्थ तुम
जिनमें गुरु कुन्द-कुन्द झलके
वो सन्त तुम
कल के अरिहन्त तुम ।।दीपं।।

न यूँ ही चढ़ा रहा,
मैं घट परिमल
मुझे तुमने अपना,
मेरा भव-मानव किया सफल
चलते-फिरते ग्रन्थ तुम
निर्ग्रन्थ तुम
जिनमें गुरु कुन्द-कुन्द झलके
वो सन्त तुम
कल के अरिहन्त तुम ।।धूपं।।

न यूँ ही चढ़ा रहा,
मैं परात फल
मुझे तुमने अपना,
मेरा भव-मानव किया सफल
चलते-फिरते ग्रन्थ तुम
निर्ग्रन्थ तुम
जिनमें गुरु कुन्द-कुन्द झलके
वो सन्त तुम
कल के अरिहन्त तुम ।।फलं।।

न यूँ ही चढ़ा रहा,
मैं द्रव्य सकल
मुझे तुमने अपना,
मेरा भव-मानव किया सफल
चलते-फिरते ग्रन्थ तुम
निर्ग्रन्थ तुम
जिनमें गुरु कुन्द-कुन्द झलके
वो सन्त तुम
कल के अरिहन्त तुम ।।अर्घ्यं।।

=कीर्तन=
नमो नमः नमो नमः
श्री विद्या-सागर नमो नमः
श्री विद्या-सागर नमो नमः
नमो नमः नमो नमः
श्री विद्या-सागर नमो नमः

जयमाला
ग्राम सदलगा की माटी में खेले हैं
विद्या-सागर सन्त बड़े अलबेले हैं

जनमें शरद पूर्णिमा दिन
छब सूरज की पहली किरण
धन्य गोदी माँ श्री मन्ती
आँगन पिता मलप्पा धन
एक पाठी मति-धारी आज अकेले हैं
विद्या-सागर सन्त बड़े अलबेले हैं

ग्राम सदलगा की माटी में खेले हैं
विद्या-सागर सन्त बड़े अलबेले हैं

दक्षिण सन्त पधारे हैं
दृग्-जल चरण पखारे हैं
किया समर्पण चरणों में
व्रत प्रतिमा के धारे हैं
साथी हुये इकासन, बेले, तेले हैं
विद्या-सागर सन्त बड़े अलबेले हैं

ग्राम सदलगा की माटी में खेले हैं
विद्या-सागर सन्त बड़े अलबेले हैं

जा पहुँचे अजमेर नगर
जहाँ ज्ञान सागर गुरुवर
हो चाले लो दैगम्बर,
तुम किरपा से इक पल में
मूकमाटी रच कवि से, रवि से पहले हैं
विद्या-सागर सन्त बड़े अलबेले हैं

ग्राम सदलगा की माटी में खेले हैं
विद्या-सागर सन्त बड़े अलबेले हैं
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।

=हाईकू=
किससे छुपा
पन्ने पन्ने तो छपा
‘श्री’
गुरु कृपा

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