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आचार्य श्री पूजन

गुरु-पाद पूजन – 238

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 238

हैं अंधेरे ।
दो कह इक दफा ।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।। स्थापना ।।

घट-जल भरे ।
दो कह-इक दफा ।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।।
हैं अंधेरे ।
दो कह इक दफा ।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।। जलं ।।

चन्दन घड़े ।
दो कह-इक दफा ।।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।।
हैं अंधेरे ।
दो कह इक दफा ।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।। चंदनं ।।

अक्षत निरे ।
दो कह इक दफा ।।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।।
हैं अंधेरे ।
दो कह इक दफा ।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।। अक्षतम् ।।

गुल सुनहरे ।
दो कह-इक दफा ।।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।।
हैं अंधेरे ।
दो कह इक दफा ।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।। पुष्पं ।।

चरु घृत निरे ।
दो कह-इक दफा ।।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।।
हैं अंधेरे ।
दो कह इक दफा ।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।। नैवेद्यं ।।

दीप विरले ।
दो कह-इक दफा ।।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।।
हैं अंधेरे ।
दो कह इक दफा ।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।। दीपं ।।

सुगन्ध घड़े ।
दो कह इक दफा ।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।।
हैं अंधेरे ।
दो कह इक दफा ।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।। धूपं ।।

फल रस भरे ।
दो कह-इक दफा ।।
ओ ! खुदा ।
हैं हम तेरे ।।
हैं अंधेरे ।
दो कह इक दफा ।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।। फलं ।।

वसु द्रव निरे ।
दो कह-इक दफा ।।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।।
हैं अंधेरे ।
दो कह इक दफा ।
ओ ! मेरे खुदा ।
हैं हम तेरे ।। अर्घं ।।

==दोहा==

जुबां पल-पलक ले रही,
जिनकी गुरु का नाम ।
रुको, रुको मंजिल कहे,
उनसे यही मुकाम ।।

।। जयमाला ।।

जय हो, जय हो,
विद्या सिन्धु अहो,
जय हो, जय हो ।

देखो ‘ना’, पग तले सड़क,
रोदें सारी दुनिया ।
फिर भी खड़ी नहीं क्या,
ले हाथों में थम्ब दिया ।।
जय हो, जय हो,
विद्या सिन्धु अहो,
जय हो, जय हो ।

देखो ‘ना’, साबुन ने अपना,
जीवन मिटा दिया ।
पर कपड़ों को मर-मिट भी,
नव जीवन भिंटा दिया ।
जय हो, जय हो,
विद्या सिन्धु अहो,
जय हो, जय हो ।

देखो ‘ना’, वो हमें बनाते,
शाला टूट गई ।
जाते-जाते दे सम्पद,
माँ-गाय अटूट गई ।।
जय हो, जय हो,
विद्या सिन्धु अहो,
जय हो, जय हो ।

देखो ‘ना’, तरु धूप खा रहे,
खिला रहें छाया ।
प्यास बुझा उर निर्झर,
कब कुछ पाने ललचाया ।।
जय हो, जय हो,
विद्या सिन्धु अहो,
जय हो, जय हो ।

अधिक और क्या,
शीष खपाये शीश दूसरों को ।
बना रही निश्चिन्त रबर,
निशि दीस दूसरों को ।।
जय हो, जय हो,
विद्या सिन्धु अहो,
जय हो, जय हो ।
जयमाला पूर्णार्घं

==दोहा==

हैं नादाँ, गुरुदेव जी,
हुईं गल्तियाँ ढ़ेर ।
ढ़ेर कीजिये कर कृपा,
अधिक न कीजे देर ।।

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