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आचार्य श्री पूजन

गुरु-पाद पूजन – 70

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित

पूजन क्रमांक 70

सदय हृदय ।
निलय विनय ।।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सद्-गुरु विद्या ।
जयतु जय, जयतु जय ।।स्थापना।।

भेंट नीर ।
हेत तीर ।।
सानन्दना ।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सदय हृदय ।
निलय विनय ।।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सद्-गुरु विद्या ।
जयतु जय, जयतु जय ।।जलं।।

भेंट गंध ।
हेत नन्द ।।
सानन्दना ।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सदय हृदय ।
निलय विनय ।।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सद्-गुरु विद्या ।
जयतु जय, जयतु जय ।।चन्दनं।।

भेंट धान ।
हेत ध्यान ।।
सानन्दना ।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सदय हृदय ।
निलय विनय ।।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सद्-गुरु विद्या ।
जयतु जय, जयतु जय ।।अक्षतं।।

भेंट फूल ।
हेत कूल ।।
सानन्दना ।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सदय हृदय ।
निलय विनय ।।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सद्-गुरु विद्या ।
जयतु जय, जयतु जय ।।पुष्पं।।

भेंट भोग ।
हेत योग ।।
सानन्दना ।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सदय हृदय ।
निलय विनय ।।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सद्-गुरु विद्या ।
जयतु जय, जयतु जय ।।नेवैद्यं।।

भेंट ज्योत ।
हेत बोध ।।
सानन्दना ।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सदय हृदय ।
निलय विनय ।।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सद्-गुरु विद्या ।
जयतु जय, जयतु जय ।।दीप॑।।

भेंट धूप ।
हेत डूब ।।
सानन्दना ।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सदय हृदय ।
निलय विनय ।।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सद्-गुरु विद्या ।
जयतु जय, जयतु जय ।।धूपं।।

भेंट भेल ।
हित अचेल।।
सानन्दना ।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सदय हृदय ।
निलय विनय ।।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सद्-गुरु विद्या ।
जयतु जय, जयतु जय ।।फल॑।।

भेंट अर्घ ।
हित पवर्ग ।।
सानन्दना ।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सदय हृदय ।
निलय विनय ।।
सुत सिन्ध-ज्ञाँ ।
सद्-गुरु विद्या ।
जयतु जय, जयतु जय ।।अर्घं।।

“दोहा”

सँग जिनके दृग् मींच के,
चलने सब तैयार ।
श्री गुरु विद्या वे तिन्‍हें,
वन्दन बारम्बार ॥

“जयमाला”

माणिक जान कहाँ परिणाम,
उठाये पानन पीक है ।
तुम्हें कहें अध्यात्म सरोवर,
राजहंस सो ठीक है ॥

पलक मात्र परमादनु-रंजित,
कहाँ आपका बीतता ।
ज्ञान-ध्यान आराधन विरहित,
पलक मात्र कब रीतता ॥
अति अचरज प्रत्येक क्रिया,
देती शिव पथिकन सीख है ।
तुम्हें कहें अध्यात्म सरोवर,
राज हंस सो ठीक है ॥

कहाँ पाप पन पंक पैर तुम,
खेल खेल भी डालते ।
आप एक प्रति भा रत स्वारथ,
कब जड़ प्रीत सँभालते ॥
पल-पल तव परिणति आलोकित,
सहज स्वात्म नजदीक है ।
तुम्हें कहें अध्यात्म सरोवर,
राज हंस सो ठीक है ॥

लगे सुहाना तुम्हें मात,
प्रवचन गोदी में खेलना ।
कहाँ सुहाये कोल्हू विरषभ,
भाँति गहल का झेलना ॥
कब सुगंध सिरझाये कब,
 दुर्गंध दिलाये हीक है ।
तुम्हें कहें अध्यात्म सरोवर,
राज हंस सो ठीक है ॥

नन्‍त गुणोदधि पर्शूं कैसे,
भूमि तिरे उस पार की ।
शिशु कब सक्षम कर सकने में,
गणना शशि परिवार की ॥
गुणन पार पा सके तिरा,
कोई ये बात अलीक है ।
तुम्हें कहें अध्यात्म सरोवर,
राज हंस सो ठीक है ।।जयमाल पूर्णार्घं।।

“दोहा”

करुणा पाने आपकी,
आये नम्र विनीत ।
आप भाँति भाने लगे,
हमें आत्म संगीत ॥

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