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आचार्य श्री पूजन

गुरु-पाद पूजन – 57

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित

पूजन क्रमांक 57

संरक्षक गोधन ।
तर करुणा लोचन ।।
सुत ज्ञान-गुरो धन ।
जयतु जय सन्त-शिरोमण।।स्थापना।।

क्षीरी रत्नाकर ।
भेंटूँ जल गागर ।।
हित समाध-बोधन ।
जयतु जय सन्त-शिरोमण ।।जलं।।

सुरभित वन-नन्दन ।
भेंटूँ घिस चन्दन ।।
हित समाध-बोधन ।
जयतु जय सन्त-शिरोमण ।।चन्दन।।

अपने ही माफिक ।
भेंटूँ धाँ शालिक ।।
हित समाध-बोधन ।
जयतु जय सन्त-शिरोमण ।।अक्षतं।।

सहजो मनहारी ।
भेंटूँ फुलवारी ।।
हित समाध-बोधन ।
जयतु जय सन्त-शिरोमण ।।पुष्पं।।

स्वयमेव सरीखे ।
भेंटूँ चरु घी के ।।
हित समाध-बोधन ।
जयतु जय सन्त-शिरोमण ।।नैवेद्यं।।

छव निश उजयाली ।
भेंटूँ दीवाली ।।
हित समाध-बोधन ।
जयतु जय सन्त-शिरोमण ।।दीप॑।।

अर स्वर्ण सुगंधा ।
भेंटूँ दश गंधा ।।
हित समाध-बोधन ।
जयतु जय सन्त-शिरोमण ।।धूपं।।

मण खचित निराली ।
भेंटूँ फल थाली ।।
हित समाध-बोधन ।
जयतु जय सन्त-शिरोमण ।।फल॑।।

ले श्रद्धा शबरी ।
भेंटूँ द्रव सबरी ।।
हित समाध-बोधन ।
जयतु जय सन्त-शिरोमण ।।अर्घं।।

दोहा

मंजिल से पहले जिन्हें,
भाये ना विश्राम ।
गुरु विद्या सविनय तिन्हें,
बारम्बार प्रणाम ॥

जयमाला

ग्राम सदलगा की गलियों के,
चर्चित-दिव श्रृंगार ।
भव जल डूब रहे धर दीजो,
उस तट हमें निकार ॥

जामन-मरण श्वास इक अठ-दस,
हा ! कीनो बहु बार ।
थावर तन धारे बहु जो सो ,
जानो तुम सरकार ॥
पुण्य जोग उद्घाटे पर्यय,
इक त्रस रूप किवार ॥
भव जल डूब रहे धर दीजो,
उस तट हमें निकार ॥

लट कृमि आदिक वे इन्द्रिय फिर,
हुये बार हम नन्‍त ।
कोटि जीभ सो कहिये ताको,
तदपि न आये अन्त ॥
निकसे पा शिशु नागन नागिन-
माँ कुण्डिलिन दरार ।
भव जल डूब रहे धर दीजो,
उस तट हमें निकार ॥

बड़े जतन पाई फिर पर्यय,
चिवटी आदिक भूर ।
तहाँ कष्ट दीने नैमंत्रित ,
कर्मन ने बन क्रूर ॥
भा सद्भावन पाने के फिर,
सुयोग्य इन्द्रिय चार ।
भव जल डूब रहे धर दीजो,
उस तट हमें निकार ॥

भ्रमरादिक बहु बार बने फिर,
बने असैनी पात्र ।
मूरख रहे मन बिना जन्मे
मनु भव पूरति मात्र ॥
वन में चन्दन वन सा पाया,
फिर संज्ञी उपहार ।
भव जल डूब रहे धर दीजो,
उस तट हमें निकार ॥

सद्‌-गुरु बिन गति चार भ्रमण कर,
पाया भव-भव त्रास ।
अब तुम मिले, मणी पारस से ,
सो आये तुम पास ॥
कंचन भाँत कीजिये मनवा ,
मनवा आप निहार |
भव जल डूब रहे धर दीजो,
उस तट हमें निकार ॥

“दोहा”

कौन खिवैय्या आप सा,
त्रिभुवन निस्पृह नेक ।
उत्तारे भव सिन्धु पे,
लेय न रुपया एक ॥

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