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आचार्य श्री पूजन

गुरु-पाद पूजन – 52

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रमांक – 52

दो बात कर,
कर इक मुलाकात लो ।
पैरों में ढुला ये, अश्रु बरसात लो ।।
कभी ये अजनबी,
जी गुरु जी,
गैरों से उठा,
रख अपने साथ लो ।।स्थापना।।

तड़फ रहा हूँ तेरे बिन जल-
बिन मछली जैसे ।
शशि नेही चकवे बिन चकवी,
निशि पिछली जैसे ।।
ओ आती जाती श्वासन,
अधिपति विद्या सागर ।
अबकी नाम बिछुरने का,
लीजे ना करुणा कर ।।जल॑।।

निशि भर सिसकूँ रख तस्वीर,
तुम्हारी सिरहाने ।
रस विहीन हो गये तिहारे,
बिन मेरे गाने ॥
ओ आती जाती श्वासन,
अधिपति विद्या सागर ।
अबकी नाम बिछुरने का ,
लीजे ना करुणा कर ।।चन्दनं।।

राह तिहारी तकते-तकते ,
शिथिल भईं अँखियाँ ।
आ भी जाओ लिगी मारने,
अब ताने सखियाँ ॥
ओ आती जाती श्वासन,
अधिपति विद्या सागर ।
अबकी नाम बिछुरने का,
लीजे ना करुणा कर ।।अक्षतं।।

हर दस्तक मन में उमंग,
नव ला देती मेरे ।
तुम्हें ना पा के वही निराशा,
नादि-निधन घेरे ॥
ओ आती जाती श्वासन
अधिपति विद्या सागर ।
अबकी नाम बिछुरने का,
लीजे ना करुणा कर ।।पुष्पं।।

बिना तिहारे मतवाला सा,
हुआ जा रहा मन ।
बरस भाँति हो रहा तिहारे ,
बिन व्यतीत इक क्षण ॥
ओ आती जाती श्वासन,
अधिपति विद्या सागर ।
अबकी नाम बिछुरने का ,
लीजे ना करुणा कर ।।नैवेद्यं।।

आती पवन लगे तेरा ,
सन्देशा लाई है ।
अन्त खबर लगती ये भी,
बन वैरिन आई है ॥
ओ आती जाती श्वासन,
अधिपति विद्या सागर ।
अबकी नाम बिछुरने का ,
लीजे ना करुणा कर ।।दीप॑।।

निरखूँ जहाँ दिखाई देता ,
सिर्फ तिरा चेहरा ।
छूने दौड़ लगाऊँ पाऊँ,
बन्ध्या सुत सेहरा ॥
ओ आती जाती श्वासन ,
अधिपति विद्या सागर ।
अबकी नाम बिछुरने का
लीजे ना करुणा क ।।धूप॑।।

भूख प्यास भी लगता बनी ,
तिरी अनुयाई है ।
तभी तेरे बिन बनी तिहारे,
सी हरजाई है ॥
ओ आती जाती श्वासन,
अधिपति विद्या सागर ।
अबकी नाम बिछुरने का,
लीजे ना करुणा कर ।। फल॑।।

मीठे बोल तिरे सुनने मन,
व्याकुल है कब से ।
कर ले तू स्वीकार, आश यह,
जीवन है जब से ।
ओ आती जाती श्वासन,
अधिपति विद्या सागर ।
अबकी नाम बिछुरने का,
लीजे ना करुणा कर ।।अर्घ्यं ।।

“दोहा”
चेहरे से जिनके नहीं ,
दृग् हटने तैयार ।
गुरु विद्या उनको मिरा,
वन्दन बारम्बार ॥

“जयमाला”

आँगन-आँगन उत्सव छाया।
गगन सदलगा चाँद दिखाया ।।

नामो-निशाँ न धब्बा-दाग ।
कुल मल्लप्पा अबुझ चिराग ।।
नयन नयन को, मन को भाया ।
गगन सदलगा चाँद दिखाया ।।
आँगन-आँगन उत्सव छाया।
गगन सदलगा चाँद दिखाया ।।

अमिरत झिर, विरली मुस्कान ।
शीतल कोकिल मिसरी वाण ।।
रस्ते दृग् जा हृदय समाया ।
गगन सदलगा चाँद दिखाया ।।
आँगन-आँगन उत्सव छाया।
गगन सदलगा चाँद दिखाया ।।

सिन्ध न बस उमडा तिहु-लोक ।
भावी तीर्थंकर आलोक ।।
सहज निराकुल अचिन्त्य-माया ।
गगन सदलगा चाँद दिखाया ।।
आँगन-आँगन उत्सव छाया।
गगन सदलगा चाँद दिखाया ।।

“दोहा”
इन त्रिभुवन माहीं अहो,
तुहीं मिरा दिन रैन ।
तुहीं मिरा सर्वस्व है,
तुहीं मिरा सुख चैन ॥

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