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विधान

 विधान- श्री साधु परमेष्ठी 

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

श्री साधु परमेष्ठी पूजन

जिन शासन पहचान ।
हम भक्तों की जान ।
करुणा दया निधान ।
जय जय, जयतु जयतु-जय, जय जय
धरती के भगवान् ।।
ॐ ह्रीं अष्टाविंशति मूलगुण सहिताय
श्री साधु परमेष्ठी समूह
अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वानम् ।
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम् ।
अत्र मम सन्निहतो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्

भेंटूँ जल अम्लान ।
हित सम्यक् श्रद्धान ।
जय जय, जयतु जयतु-जय, जय जय
धरती के भगवान् ।।
ॐ ह्रीं श्री साधु परमेष्ठी
जन्म जरा मृत्यु विनाशनाथ
जलं निर्वाणमीति स्वाहा ।

भेंटूँ मलय गुमान ।
हित इक महल-मशान ।।
जय जय, जयतु जयतु-जय, जय जय
धरती के भगवान् ।।
ॐ ह्रीं श्री साधु परमेष्ठी
संसार ताप विनाशनाथ
चंदनम् निर्वाणमीति स्वाहा ।

भेंटूँ अक्षत धान ।
हित विभिन्न असि म्यान ।।
जय जय, जयतु जयतु-जय, जय जय
धरती के भगवान् ।।
ॐ ह्रीं श्री साधु परमेष्ठी
अक्षयपद प्राप्ताय
अक्षतान् निर्वाणमीति स्वाहा।

भेंटूँ पुष्प विमान ।
हित मन बाल समान ।।
जय जय, जयतु जयतु-जय, जय जय
धरती के भगवान् ।।
ॐ ह्रीं श्री साधु परमेष्ठी
कामबाण विध्वंशनाय
पुष्पम् निर्वाणमीति स्वाहा ।

भेंटूँ घृत पकवान ।
हित, मित, परिमित वाण ।।
जय जय, जयतु जयतु-जय, जय जय
धरती के भगवान् ।।
ॐ ह्रीं श्री साधु परमेष्ठी
क्षुधा रोग विनाशनाथ
नैवेद्यम् निर्वाणमीति स्वाहा ।

भेंटूँ दीपक भान ।
हित सरसुत आह्वान ।।
जय जय, जयतु जयतु-जय, जय जय
धरती के भगवान् ।।
ॐ ह्रीं श्री साधु परमेष्ठी
मोहान्धकार विनाशनाय
दीपम् निर्वाणमीति स्वाहा ।

भेंटूँ धूप सुहान ।
हित चित् अनुसंधान ।।
जय जय, जयतु जयतु-जय, जय जय
धरती के भगवान् ।।
ॐ ह्रीं श्री साधु परमेष्ठी
अष्टकर्म दहनाय
धूपम् निर्वाणमीति स्वाहा ।

भेंटूँ फल, बागान ।
हित सु…मरण वरदान ।।
जय जय, जयतु जयतु-जय, जय जय
धरती के भगवान् ।।
ॐ ह्रीं श्री साधु परमेष्ठी
मोक्ष फल प्राप्ताय
फलं निर्वाणमीति स्वाहा ।

भेंटूँ द्रव्य प्रधान ।
हित दिव-शिव सोपान ।।
जय जय, जयतु जयतु-जय, जय जय
धरती के भगवान् ।।
ॐ ह्रीं श्री साधु परमेष्ठी
अनर्घ्य पद प्राप्ताय
अर्घम् निर्वाणमीति स्वाहा ।

विधान प्रारंभ

*पञ्च महावत*

इक साचा, गुरुवर का द्वारा ।
जय जय कारा, जय जय कारा ।।

पूरण मंशा ।
नूर अहिंसा ॥
सन्मत हंसा ।
नभ धुव तारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं अहिंसामहाव्रत सहित साधु परमेष्ठिभ्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।

दूर तबाही ।
रुतबा शाही ॥
सत् पथ राही ।
दृग् जल धारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं सत्यमहाव्रत सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

चित्त चुराते ।
वित्त न नाते ॥
चरित्र गाते ।
हम सब थारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं अचौर्य महाव्रत सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

हया दृगों में ।
दया रंगों में ॥
आते गो में ।
विरद निराला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं ब्रहम्चर्य महाव्रत सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

मूर्च्छा त्यागी ।
परिणत जागी ॥
इक बढ़ भागी ।
बाहर कारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं परिग्रह त्याग महावृत सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

*पञ्च समिति*

देख चालते ।
एक साधते ॥
नेक-साध, ते-
नमोऽतु न्यारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं ईर्या समिति सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

धीरे बोले ।
मिसरी घोले ॥
राज न खोले ।
उदर विशाला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं भाषा समिति सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

नम जाते हैं ।
गम खाते हैं ॥
रम जाते हैं ।
पा श्रुत धारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं एषणा समिति सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

पीछि सँभाली ।
निधि निज पाली ॥
मनी दिवाली ।
टला दिवाला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं आदान निक्षेपण सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

जीव बचाते ।
दीव जगाते ॥
करीब लाते ।
दिव-शिव द्वारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं व्युत्सर्ग समिति सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

*पंचेन्द्रिय रोध*

गजस्-नान ना ।
गहल श्वान ना ॥
मद-गुमान ना ।
मन अविकारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं स्पर्शन इन्द्रिय जय निरत
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

तृषा विदाई ।
सुधा सगाई ॥
‘रस…ना’ भाई ।
अर्थ विचारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं रसना इन्द्रिय जय निरत
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

गहल न भौंरी ।
परिणत गौरी ॥
गला न दो…’री ।
ओ’ री बाला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं घ्राण इन्द्रिय जय निरत
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

पल न हाँप लें ।
पलक झाप लें ॥
फलक नाप लें ।
कद कुछ न्यारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं चक्षु: इन्द्रिय जय निरत
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

दूर फना-फन ।
नूर सना-तन ॥
तूर जिना-धन ।
सम्प्रति काला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं कर्ण इन्द्रिय जय निरत
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

*षट् आवश्यक*

समता, बोधी ।
ममता खो दी ॥
रमता जोगी ।
दरिया धारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं सामायिक आवश्यक सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

पल-पल सुमरण ।
शान्त सरित् मन ॥
अपूर्व सुख क्षण ।
वश जग सारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं स्तवन आवश्यक सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

संध्या, प्रातः ।
प्रभु से नाता ॥
हे ! जग त्राता ।
शिशु मैं थारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं वन्दना आवश्यक सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

शील शिरोमण ।
पनील लोचन ॥
स्वयं अलोचन ।
हा ! मन काला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं प्रतिक्रमण आवश्यक सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

कषाय छोड़ी ।
गुण बेजोड़ी ॥
धुन-जिन जोड़ी ।
प्रीत अपारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं प्रत्याख्यान आवश्यक सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

निस्पृह नेही ।
देह विदेही ॥
सहजो ये ही ।
तरण शिवाला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं कायोत्सर्ग आवश्यक सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

*सप्त शेष गुण*

केश उखाडें ।
द्वेष संहारें ॥
शेष न यादें ।
विस्मृत सारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं कच लुंचन गुण सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

नगन दिगम्बर ।
बिन आडम्बर ॥
निर्जर, संवर,
शिखर हिमाला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं वस्त्रत्याग मूलगुण सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

निज अवगाहैं ।
न्हवन न चाहें ॥
सजल निगाहें ।
दुखी निहारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं अस्नान मूलगुण सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

छेद न पातल ।
सेज धरातल ॥
खेद न हासिल ।
इक, इक ग्यारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं भूमिशयन गुण सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

दन्त न धोना ।
सुगन्ध सोना ॥
कहें न, दो…ना ।
दीन दयाला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं दन्तधावन रहित गुण सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

खड़े जीमना ।
बड़े धी-मना ॥
खड़े श्री-मना,
विनत कतारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं स्थिति-भुक्ति गुण सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

भुक्ति अकेली ।
सूक्ति सहेली ॥
मुक्ति पहेली,
अब ना यारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
ॐ ह्रीं एकभुक्ति गुण सहित
साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
जाप्य-मंत्र
ॐ ह्रूम् ह्रौम् ह्र: आ उ सा नमो-नमः

*जयमाला*
*दोहा*
सद्-गुरु क्रिया प्रतेक से,
अखर-ढ़ाइ दे सीख |
पीडा औरन देख के,
फौरन पड़ते चीख ॥

सद्-गुरु कृपा अनन्त ।
ग्रन्थ कहें भगवन्त ॥

पर हित आतुर एक ।
पीर न सकते देख ॥
लोचन सजल तुरन्त ।
सद्-गुरु कृपा अनन्त॥

‘धी’ वर मछली त्याग ।
मांस त्याग कर-काग ॥
व्याध महर्धिक इन्द ।
सद्-गुरु कृपा अनन्त ॥

दृढ़ बन्धन दो टूक ।
चन्दन भक्ति अटूट ॥
ठग अञ्जन निर्ग्रन्थ ।
सद्-गुरु कृपा अनन्त ॥

ज्ञान चरण आदर्श ।
‘दर्श मान’ सम-दर्श ॥
‘सहज निराकुल’ नन्द ।
सद्-गुरु कृपा अनन्त ॥

*दोहा*
यही प्रार्थना आखरी,
सिर ले पग-तुम धूल ।
संभल संभल भी बन पड़ीं,
भुला दीजिये भूल ॥

‘सरसुति-मंत्र’

ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*विसर्जन पाठ*

बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।

अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।

धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।

अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।

बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।५।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )

दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)

*आरती*
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।।

हाथ में दीपों की थाली ।
जगमगाती ज्योती वाली ।।
उतारूँ आरतिया में आज ।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।

जोर की बरसा मुसलधार ।
बूँद बाणों सा करे प्रहार ।।
गरजती बिजली सींह दहाड़ ।
सहज सहते तरु-मूल विराज ।।
पुण्य में अपने मुझको नाज ।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ॥

चले, कर साँय-साँय पवमान ।
राख जल हरे-भरे खलिहान ।।
तब खड़े जो चौराहे आन ।
मिल गये तारण-तरण जहाज ॥
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।

दूर तरु, नाम निशान न छाह ।
धरा उगले अंगारी दाह ।।
धरी जिनने तब पर्वत राह ।
ढ़ोक, सुन ली मेरी आवाज ।।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।

हाथ में दीपों की थाली ।
जगमगाती ज्योती वाली ।।
उतारूँ आरतिया में आज ।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।

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