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सहजो पाठशाला

नव देवता -श्री अरिहन्त जी

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

*नव देवता*

‘अरिहन्त’
अरि यानि ‘कि शत्रु,
सो दुश्मन कोई व्यक्ति विशेष नहीं है
अवगुण हैं
राग-द्वेष-मोह काम, क्रोध आदि
इन पर विजय प्राप्त कर ली है
जिन्होंने
इन्हें हन्त यानि ‘कि मार भगाया है
वे अरिहन्त है

इन्हीं का पर्यायवाची शब्द है अर्हं

‘अर्ह’
यानि ‘कि पूज्य
जिन्हें सारा-विश्व
राजा-महाराजा
शक्री-चक्री आकर सिर झुकाते हैं
दोनों हाथ जोड़कर
सेवा में खड़े रहते हैं
वह अर्हन् हैं

जो वीतरागी,
सर्वज्ञ और हितोपदेशी है
वे ईश्वर है
वीतराग,
जिनका राग बीत चला है
ज्ञ यानि ‘कि ज्ञाता हैं
जो सर्व पदारथ के,
वह सर्वज्ञ हैं
और सार्थक स’हित हैं
बोल जिनके
वे हितोपदेशी हैं

‘जिन’
इन्द्रियों को जीत लिया है जिन्होंने
उन सभी में जो
प्रमुख है वह जिनेन्द्र हैं

‘सकल परमात्मा’
कल यानि ‘कि शरीर,
जिनकी परमौदारिक देह हो चली है
वह सकल परमात्मा हैं

‘सयोग केवली’
योग से सहित हैं जो केवलज्ञानी
वह सयोग केवली हैं

सुनो पता है
अरहन्त भगवान् के
४६ मूल गुण होते हैं
३४ अतिशय
८ प्रातिहार्य
और ४ अनन्त चतुष्टय
हाँ हाँ जायज ही है
जिज्ञासा उठना
‘के गुण तो दिखाई ही नहीं दे रहे हैं,
अतिशय जन्म कृत है १०
१० केवलज्ञान कृत
और देवकृत १४
आठ प्रातिहार्य वैभव रूप हैं
चार चतुष्टय
घातिया कर्म
क्षय होने के फल स्वरूप हैं

परन्तु सुनिये,
जनसामान्य के पास
ऐसे अतिशय
दिखलाने का समय है क्या देवों के पास
कोई न कोई बात हो रही होगी
जो और दूसरे काम-काज छोड़के
बड़े बड़े देव
इन देवाधिदेव के
चरणों की सेवा प्राप्त करने का
अवसर खोजते रहते हैं
हाँ कार्य दिख रहा है
कारण नदारत है
वैसे नदारत नहीं है
हाँ..हाँ पर्दे के पीछे जरूर है
गुण एक नहीं
अनेक नहीं
अनेक तो एक के बाद ही
शुरू हो चालता है
लेकिन जिनका अन्त नहीं
ऐसे अनन्त गुण हैं
‘के गुरु बृहस्पति भी
गणना नहीं कर पाये

*जन्म के दश अतिशय*

‘मुझसे… हाई को’

देह सुन्दर,
सुगंधित, पसीना, मल-रहित ।।१।।

वचन प्रिय हित मित,
अतुल बल, ‘लखन’ ।।२।।

संस्थान, दिव्य संहनन समेत,
शोणित श्वेत ।।३।।

*केवलज्ञान के दश अतिशय*

विगत गत-केश-नख,
योजन शत सुभिख ।।१।।

चतुर्दिग्मुख, उपसर्ग अभाव,
दया सद्भाव ।।२।।

विहार उठ अंगुल चार,
कब कवलाहार ।।३।।

विद् विद्या पून,
परछा, ईपलक झपन शून ।।४।।

*देव कृत चौदह अतिशय*

अर्धमागधी भाषा,
दिशा निर्मल, स्वच्छ आकाशा ।।१।।

षट् रित फल-फूल,
पथ रहित कण्टक धूल ।।२।।

‘दर्पण’ धरा कुटुम,
वसुन्धरा स्वर्ग उतरा ।।३।।

चक्र धर्म, विरचना पद्म,
वायु सुरम ।।४।।

जै-नाद, गंध उदक बरसात,
आनन्द हाथ ।।५।।

*अनन्त चतुष्टय*

अनन्त ज्ञान,
सुख अतन्त वीर्य नन्त श्रद्धान ।।१।।

*अष्ट प्रतिहार्य*

दृष्टि सुमन
तर सिंहासन भा-मण्डल धुन ।।१।।

स्वर चँवर छतर तीन
श्री जी विभव चीन ।।२।।

सुनो,
तीर्थकर केवली के अलावा
एक सामान्य केवली भी है
जिनके कल्याणक नहीं होते हैं
गंधकुटी रहती है
तीर्थंकर प्रभु का
समवशरण लगता है
एक अन्तकृत केवली भी हैं
जो मुनि उपसर्ग के समय
अडिग रहते हैं
और केवल ज्ञान प्राप्त कर
लघु अन्तर्मुहूर्त में
निर्वाण प्राप्त करते हैं

देखो,
उपसर्ग केवली से भिन्न हैं यह,
जो मुनि उपसर्ग सहन करके
केवल ज्ञान प्राप्त करते हैं
मुनि देशभूषण
कुलभूषण के भाँति

सुनते हैं
राम लक्ष्मण सीता ने
इनसे धर्मोपदेश पा
जीवन अपना कृतार्थ किया था

एक मूक केवली भी हैं
केवलज्ञान होने के बाद
जिनकी वाणी नहीं खिरती है
मौन रहते हैं यह

और अनुबद्ध केवली वो हैं
जो एक के लिये
मोक्ष होने के बाद
उसी दिन किसी दूसरे मुनि को
केवलज्ञान हो जाता है
सुनते हैं
गौतम स्वामी
सुद्धर्माचार्य
और जम्बूस्वामी
ये तीन
अनुबद्ध केवली हुये

एवं अंतिम सातवां प्रभेद है
समुद्धात केवली का
इन केवली भगवान् की
आयु अन्तर्मुहूर्त रहती है जब
और शेष कर्मों की स्थिति
अधिक रहती है
तब ये आयु कर्म के बराबर
शेष कर्मों की स्थिति करने के लिये
समुद्‌घात करते हैं

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