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तीर्थक्षेत्र पूजन

पूजन- पटेरिया जी के पारस बाबा

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

बाबा पटेरिया जी पूजन
पार्श्वनाथ भगवान् 

दुखड़े को सुनने वाले हैं ।
दुख-दर्द विहरने वाले हैं ।।
त्रिफणी-पारस पटेरिया जी,
त्रिभुवन इक रखवाले हैं ।।
सीले-सीले से नैन लिये ।
आवाज दे रहा इसी-लिये ।।
आओ, मन मन्दिर में आओ ।
दे अनुभव एक नया जाओ ।।

आँखों में भर लाया पानी ।
नहिं व्यथा आप से अनजानी ।।
सीले-सीले से नैन लिये ।
आवाज दे रहा इसी-लिये ।।
आओ, मन मन्दिर में आओ ।
दे अनुभव एक नया जाओ ।।

चन्दन से भर लाया गागर ।
भीतर उमड़े दुख का सागर ।।
सीले-सीले से नैन लिये ।
आवाज दे रहा इसी-लिये ।।
आओ, मन मन्दिर में आओ ।
दे अनुभव एक नया जाओ ।।

धाँ खिला-खिला दाना-दाना ।
छोड़े न पिण्ड आना-जाना ।।
सीले-सीले से नैन लिये ।
आवाज दे रहा इसी-लिये ।।
आओ, मन मन्दिर में आओ ।
दे अनुभव एक नया जाओ ।।

पुष्पों से भरी पिटारी है ।
तन धौरा परिणति कारी है ।।
सीले-सीले से नैन लिये ।
आवाज दे रहा इसी-लिये ।।
आओ, मन मन्दिर में आओ ।
दे अनुभव एक नया जाओ ।।

नीके नैवेद्य सभी घी के ।
तृष्णा अरमान करे फीके ।।
सीले-सीले से नैन लिये ।
आवाज दे रहा इसी-लिये ।।
आओ, मन मन्दिर में आओ ।
दे अनुभव एक नया जाओ ।।

दीपों में घी गिर गैय्या का ।
जग धूप, पता ना छैय्या का ।।
सीले-सीले से नैन लिये ।
आवाज दे रहा इसी-लिये ।।
आओ, मन मन्दिर में आओ ।
दे अनुभव एक नया जाओ ।।

दशगंध धूप कण-कण विरले ।
बरसाते कहर कर्म पिछले ।।
सीले-सीले से नैन लिये ।
आवाज दे रहा इसी-लिये ।।
आओ, मन मन्दिर में आओ ।
दे अनुभव एक नया जाओ ।।

फल मधुर रसीले ऋत वाले ।
खुद बुने, फसूँ मकड़ी जाने ।।
सीले-सीले से नैन लिये ।
आवाज दे रहा इसी-लिये ।।
आओ, मन मन्दिर में आओ ।
दे अनुभव एक नया जाओ ।।

वसु द्रव्य सजाकर लाया हूँ ।
हा ! बना भेड़, वन-राया हूँ ।।
सीले-सीले से नैन लिये ।
आवाज दे रहा इसी-लिये ।।
आओ, मन मन्दिर में आओ ।
दे अनुभव एक नया जाओ ।।

कल्याणक
की रत्नों की बरसा नभ ने ।
मन मन-भर ली झोली सबने ।।
दिखला माँ को सपने सोला ।
ओढ़ा प्रभु ने मानव चोला ।।

गूॅंजी महलों में किलकारी ।
छवि अपने जैसी मनहारी ।।
शिशु शचि सौ-धर्म गोद लीना ।
अभिषेक नृत्य-ताण्डव कीना ।।

विष विषय न डाल सके डोरे ।
काजर कोठरि निकले कोरे ।।
वन आये, वस्त्र उतार लिये ।
घुँघराले केश उखाड़ दिये ।।

कृत कर्म-पूर्व अपने लेखे ।
अरि नाम कमठ घुटने टेके ।।
सम शरण मोर-अहि, सिंह-हिरणा ।
धुनि-दिव्य भव्य तारण-तरणा ।।

ध्यानाग्नि शुक्ल फिर प्रकटाई ।
इक एक कर्म ला विघटाई ।।
यूॅं बंधन काम तमाम हुआ ।
जा समय मात्र शिव धाम छुआ ।।

जयमाला
दोहा
रोने रोना और मैं,
जाऊँ किसके द्वार ।
दी तेरी ये जिन्दगी,
तू ही इसे सँवार ।।

बिन तेरे कौन हमारा
इक तेरा सिर्फ सहारा
नफरत से भरा जमाना
स्वारथ का नहीं ठिकाना
इक सिर्फ तुम्हें आया बस
गैरों को गले लगाना
मैं टूटा-गगन-सितारा
इक तेरा सिर्फ सहारा

चेहरे ले बुझे बुझे-से
जलते सब एक-दूजे से
इक सिर्फ तुम्हें आया बस
मुस्कान लुटाना कैसे
मैं पेड़ किनारे धारा
इक तेरा सिर्फ सहारा

जग स्वयं लकीर बढ़ाने
औरों की लगा मिटाने
इक सिर्फ तुम्हें आया बस
पर हित बिक आना आने
मैं दो इक-इक, औ’ ग्यारा
इक तेरा सिर्फ सहारा

दोहा
आ पटेरिया जी कभी,
देखो तो इक बार ।
त्रिफणी पारस नाथ की,
महिमा अगम अपार ।।

चालीसा

धुनि ओंकार एक सुर वाँचा ।
दर पटेरिया जी इक साँचा ।।
पारस मणि से बढ़ के बाबा ।
हम जैनों के काशी काबा ।।1।।

पारस मणि ले शर्त खड़ी है ।
जिस लोहे ना जंग चढ़ी है ।।
चुटकी में कर दूँगी सोना ।
ये भी कोई जादू टोना ।।2।।

जादू तो प्रभु पारस करते ।
सिक्के खोटे भी चल पड़ते ।।
बोल धनञ्जय बस तुक बन्दी ।
जहर बेअसर भक्ति अन्धी‌ ।।3।।

श्रद्धा सुमन, अटल विश्वासा ।
अंजन चोर गमन आकाशा ।।
मुख-मेढ़क पाँखुरी दबा के ।
बैठा प्रथम सम-शरण आके ।।4।।

सो’मा ने’ घट हाथ निकाला ।
नाग बनें, फूलों की माला ।।
भगवत भगत जयतु जय गूँजे ।
पंख जटायु सोने दूजे ।।5।।

गौरव करुणा धर्म बढ़ाया ।
सिंहासन चाण्डाल बिठाया ।।
काँधे झुके, बाण धनु भारा ।
छुड़ा मांस कौवे का तारा ।।6।।

जाल लटकता काँधे जाके ।
तारा मछली प्रथम छुड़ा के ।।
ननद कलंकिन नाम नवाजा ।
लागा पैर खुला दरवाजा ।।7।।

नागिन नाग आग झुलसाये ।
प‌द्मावत, धरणेन्द्र कहाये ।।
चाहें लपट भुवन तिय निगला ।
पार आग दरिया तिय अबला ।।8।।

कूकर एक भाग का मारा ।
देव बना गूँजा जय कारा ।।
बैल आखरी साँसें गिनते ।
जन्मा राज घराने सुनते ।।9।।

इक खूॅंखार जंगली शूकर ।
मरकर देव बना जा ऊपर ।।
इक शियार की किस्मत जागी ।
प्रीतिंकर नामा बड़भागी ।।10।।

एक शेर दाबे मुँह हिरणा ।
यूँ सचेत लो गाफिल फिर ना ।।
सहज-निराकुल भोला-भाला ।
कुन्दकुन्द बन निकला ग्वाला ।।11।।

सूली, बनी सिंहासन सहसा ।
सेठ सुदर्शन साधारण सा ।।
भर आँखों में नीर पुकारा ।
चीर, पद्म-पद-विष्णु-कुमारा ।।12।।

बंधन टूट, खुल पड़े ताले ।
विफल शत्रु मनसूबे काले ।।
बाला मति अनंत पल ध्याया ।
चुनर दाग न लगने पाया‌ ।।13।।

देव-खेव-पत भावन भीने ।
दाने ज्वार मोति कर दीने ।।
देख शेर अबला घबड़ाई ।
आ अष्टापद बना सहाई ।।14।।

मन से क्या हाथों को जोड़ा ।
पैर गजेन्द्र मगर ने छोड़ा ।।
णमोकार भी जिन्हें न आई ।
शिव विभूत शिव-भूत रिझाई ।।15।।

अंग अंग था गलने लागा ।
ऐसा कुष्ठ, सुमरते भागा ।।
भॅंवर निकल नौ तीर किनारे ।
टकते चुनर चाँद सितारे ।।16।।

पारस मणि की सीमा रेखा ।
पार्श्व भक्त पारस अभिलेखा ।।
मनो-कामना पूरी होती ।
चरणों में क्या रखी मनौती ।।17।।

हल्दी बच्चों को चढ़ जाये ।
डोला उठे, बहुरिया आये ।।
प्रभु जयकार लगा मन सच्चे ।
काम-धाम, से लगते बच्चे ।।18।।

अक्षर ढ़ाई कण्ठ समायें ।
‘पर’ अरमानों में लग जायें ।।
बाबा नाम फेरते मनके ।
बनें हकीकत लाडू मन के ।।19।।

उड़े पतंग न खाती गोटे ।
मन्त्र मूठ पग उल्टे लौटे ।।
बाबा की क्या पड़े नजरिया ।
सिन्धु जा मिले सूखा दरिया ।।20।।

धूप गुनगुनी, मौसम सरदी ।
मौसम गरमी, छाँव बरगदी ।।
दृढ़ निमित्त सम दर्शन दूजा ।
अष्ट द्रव्य से की प्रभु पूजा ।।21।।

काल सर्प इक योग विदाई ।
साढ़े साती पग पलटाई ।।
प्रभु चरणों में दृष्टि टिकाते ।
मंजिल कहे रुको बस आते ।।22।।

मंगल हटे, सुलझतीं सॉंकें ।
हटे अमंगल खुलतीं आँखें ।।
चरणोदक क्या सिर पर धारा ।
रोग स्वयं ही यम को प्यारा ।।23।।

बने भूमी उपजाऊ परती ।
रक्खी बाँध दुकां चल पड़ती ।।
जय बाबा जय रटते-रटते ।
कर्म आज के कल के कटते ।।24।।

रुका काम आगे बढ़ जाता ।
नाम सुर्ख़िंयों में चढ़ जाता ।।
ज्योत अखण्ड बालनी घी-की ।
लगे हाथ मति हंसी नीकी ।।25।।

बर्तन की आवाज न आती ।
सहज निराकुलता इक थाती ।।
प्रीत जोड़नी, बस बाबा से ।
मात शकुनी दे आयें पाँसे ।।26।।

तूफाँ बाढ़ थमें जा लेवा ।
समय-समय बरसे आ मेघा ।।
ईति-भीति सिक सके न रोटी ।
फसल उगलती हीरे मोती ।।27।।

खोई हुई चीज मिल जाती ।
दोई जहाँ सभी हों साथी ।।
फेरे तीन लगाये मन से ।
छूटे जामन, जरा, मरण से ।।28।।

आशा से ज्यादा मिल जाता ।
चाहा उससे जुड़ता नाता ।।
पद रज बस सिर माथ चढ़ानी ।
दुख दर्दों की खत्म कहानी ।।29।।

बुरा, बुरी-नजरों का होता ।
करे विपक्ष स्वयम् समझौता ।।
मंगल अष्ट द्रव्य क्या भेंटे ।
शुभ मुहुर्त शुभ शगुन समेटे ।।30।।

शान्त झील सा मन हो जाता ।
जिसमें निज दर्शन हो, जाता ।।
प्रभु मूरत मन थापित कीनी ।
दुर्भावों से सत्ता छीनी ।।31।।

कोट कचेरी पीछा छोड़े ।
राहों से हट जायें रोड़े ।।
दौड़े-दौड़े गोद उठाते ।
बाबा देख राह में काँटे ।।32।।

इक स्तंभ यहाँ पे ऐसा ।
छुयें चाहते होता वैसा ।।
खुद सा यहाँ कुण्ड एक विरला ।
जल जिसका कल घृत में बदला ।।33।।

रुई बेंच जो हुई कमाई ।
मंदिर बना मूर्ति पथराई ।।
तीन एक इक ऊपर फन हैं ।
चीन नेक जग इक राजन हैं ।।34।।

पार सभी को करते इससे ।
पारस ‘भी’ बहु-चर्चित किस्से ।।
पा रस पिया न बस खुद छक-के ।
बॉंटा बना, न बैठे रख के ।।35।।

अबला-हिरणा, नाहर-सूरा ।
तभी समशरण नाग-मयूरा ।।
कालीं सभी शक्तिंयाँ आके ।
बैठीं सम्मुख माथ झुका के ।।36।।

आतीं रात रात आवाजें ।
ढ़ोल मजीरे घुँघरु बाजें ।।
प्रभु को दुखड़ा सुनना आता ।
लगा भक्त तॉंता बतलाता ।।37।।

भनक तनक न लगने पाये ।
झोली मुख तक भरी दिखाये ।।
बनती बात न सिर्फ मँगाते ।
गूँगे दिखे छिपा कुछ जाके ।।38।।

भले हाथ का श्रीफल लाना ।
दुख बुदबुदा सिर्फ रख आना ।।
पलक झपक ना पाई देखा ।
उकरी सुख-समृद्धि रेखा ।।39।।

अधिक अनकहा, कम कह पाया ।
आता दिखे, क्षितिज कब आया ।।
‘पाले’ मौन सहज जाता हूँ ।
जा… जल्दी घर से आता हूँ ।।40।।

दोहा
जब तक घर से आ रहा,
तब तक की है ढ़ोक ।
और कुछ नहीं चाहिये,
रहे न सपना मोख ।।

आरती
जय पारस जय पारस बोलो
बनता साध मौन जब खोलो

माँ वामा के राज दुलारे
अश्व सने कुल नम ध्रुवतारे
जन्मे काशी नाम नगरिया
घृत-मिसरी-बड़ बोल मुरलिया

पुण्य अपूर्व सातिशय बोलो
बनता साध मौन जब खोलो
जय पारस जय पारस बोलो
बनता साध मौन जब खोलो

राग रंग सर चढ़ ना पाया
बाल उमर वैराग्य जमाया
वस्त्र उतारे, केश उखारे
चार ज्ञान धर, तारणहारे

हर्ष अश्रु से नयन भिंजो लो
बनता साध मौन जब खोलो
जय पारस जय पारस बोलो
बनता साध मौन जब खोलो

सार्थक नाम समशरण लागा
दृग् नम मृग, सिंह, मेंढ़क, नागा
घात अघात हाथ शिव राधा
भाँत आप हित हेत अराधा

सम दृग्, ज्ञान, चरित मण गो लो
बनता साध मौन जब खोलो
जय पारस जय पारस बोलो
बनता साध मौन जब खोलो

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