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आचार्य श्री पूजन

गुरु-पाद पूजन – 740

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 
  • परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित

पूजन क्रंमाक 740

पतझड़ मैं,
क्या न करना मुझे सावन गुरु जी
पामर मैं,
क्या न करना मुझे पावन गुरु जी
क्या मुझे,
रखना है बना पाहन ही,
दे भी दो,
अपनी इस अहिल्या को, पड़गाहन गुरु जी
।।स्थापना।।

भेंटूँ जल दृग् सजल, आश ले,
‘के मिटें फासले ।।जलं।।

समझ पाओ ‘के तुम हमें,
भेंटूँ मलयज मैं ।।चन्दनं।।

गुरु जी, भेंटूँ धाँ अनूठी,
माँ देर रहे न रूठी ।।अक्षतं।।

शायद मान जाओ अबकी तुम,
मैं भेंटूँ कुसुम ।।पुष्पं।।

बनाये पुण्य कारज,
मैं फिर के भेंटूँ नेवज ।।नैवेद्यं।।

जगाऊँ फिर दीपिका,
आसमान आशा से टिका ।।दीपं।।

धूप भेंटूँ,
दृग् पायें आँसू-खुशी ‘के पुण्य समेटूँ ।।धूपं।।

भेंटूँ श्री फल हाथ दोई,
‘के जागे किस्मत सोई ।।फलं।।

मुझ दुखिया की सुन लो,
कुटिया मेरी चुन लो ।।अर्घं।।

हाईकू
धूप में घनी छाँव,
श्री गुरुदेव की रज-पाँव

जयमाला

रखते नित हंस विवेक ।
मुनि भीतर बाहर एक ।।

मन बालक सद्या-जात ।
अनुराग जाग दिन रात ।।
रख ध्यान अहिंसा पाथ,
सुलझी सी रखते बात ।।
पीड़ित पर पीड़ा देख ।
मुनि भीतर बाहर एक ।।१।।

रग लहु पुरु वंशी गौर ।
विश्राम हिरणिया दौड़ ।।
दृग् मां प्रतिरूप अमोल,
परिणत जागृत शिर-मौर ।।
चल काल अतीत सुलेख ।
मुनि भीतर बाहर एक ।।२।।

बन्धन विधि आद्योपांत ।
दुर्भाव कषाय प्रशांत ।।
तन लिप्त जल्ल-मल कान्त ।
कृत काम सहज निर्भान्त ।।
मंजिल पहले कब टेक ।
मुनि भीतर बाहर एक ।।३।।

।।जयमाला पूर्णार्घं।।

हाईकू
हैं किसके न मन में,
गुरु वसे कण-कण में

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