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आचार्य श्री पूजन

गुरु-पाद पूजन – 717

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 
  • परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित

पूजन क्रंमाक 717

=हाईकू=
श्री गुरु पास,
रहती बात,
कुछ हटके, खास ।।स्थापना।।

भेंटूँ जल, 
ए ! विगत माया-मिथ्या-निदान शल ।।जलं।।

भेंटूँ चन्दन,
गंग-जमुन-दृग् ! ‘कि सुना क्रन्दन ।।चन्दनं।।

भेंटूँ अक्षत,
अय ! संरक्षक ‘भा-रत संस्कृत’ ।।अक्षतं।।

भेंटूँ प्रसून,
काम धेन ! ए ! मनो कामना पून ।।पुष्पं।।

भेंटूँ पकवाँ,
वर्तमां वर्धमां ! ए ! किरपा निधाँ ।।नैवेद्यं।।

भेंटूँ दीपाली,
जहां मावस, रात औ’ उजियाली ।।दीपं।।

भेंटूँ सुगंध,
चाँद बीच तारन सन्त-निर्ग्रन्थ ।।धूपं।।

भेंटूँ फल,
ए ! कलि धारक रत्न-तीन निर्मल ।।फलं।।

भेंटूँ अरघ,
सहज निरा-कुल ! ए ! जेय-जग ।।अर्घ्यं।।

=हाईकू=
जात-पात से,
‘कोस दूर गुरु जी’
पक्ष-पात से

।।जयमाला।।

है मीठी इतनी,
‘के जुबाँ आपकी,
मिश्री दही,
क्या गुड़-घी,
झाँकता है बगलें, अमृत भी,

आपके आगे
है और अभागे
‘जी गुरुदेव जी

बड़ी सीरी जुबां है
इक बारी छुआ है
जिसने सच्चे हृदय से
उसने छुवा आसमां है
तुम्हारी बड़ी सीरी जुबां है

जाने जमाना
न जाना जायका बद्-दुआ है
पड़ती रहती दुआ है
आगे धकाती, पाछी हवा है,
जाने जमाना
न जाना जायका बद्-दुआ है
पड़ती रहती दुआ है

जाने जमाना
न जाना जायका बद्-दुआ है
पड़ती रहती दुआ है
माँ की फूॅंक वाली दवा है,
जाने जमाना
न जाना जायका बद्-दुआ है
पड़ती रहती दुआ है
बड़ी सीरी जुबां है

।। जयमाला पूर्णार्घं ।।

=हाईक=
कर दो कर,
ये वर,
पोंछ सकूँ दृग्-नीर पर

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