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आचार्य श्री पूजन

गुरु-पाद पूजन – 65

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रमांक 65

संयम है उपहार जिन्हें गुरु,
ज्ञान सिन्धु का ।
रूप सलोना हरने वाला,
मान इन्दु का ।।
मूक प्राणियों के प्राणों से,
जिन्हें प्यार है ।
गुरु विद्या वे उन्हें हमारा,
नमस्कार है ।।स्थापना।।

कलि भौतिकता की कुछ कम ना,
चकाचौंध है ।
ऊपर से मन मचला करने,
मजा मौंज है ।।
तदपि मुक्ति मारग पे,
चलने की है ठानी ।
पकड़ लीजिये अँगुलि हमारी,
सम रस सानी ।।जलं।।

अनुकूलताओं में माना,
क्रोध ना आता ।
लख हा ! प्रतिकूलता कब ना,
आँख दिखाता ।।
तदपि मुक्ति मारग पे,
चलने की है ठानी ।
पकड़ लीजिये अँगुलि हमारी,
सम रस सानी ।।चन्दनं।।

मान मेरू पे सबसे ऊपर,
ध्वज है मेरा ।
ईर्ष्यादिक किन-किन दुर्भावों,
का ना चेरा ।।
तदपि मुक्ति मारग पे,
चलने की है ठानी ।
पकड़ लीजिये अँगुलि हमारी,
सम रस सानी ।।अक्षतं।।

अंतरंग में काम समाया,
है कुछ ऐसे ।
नागराज चन्दन तरु से,
लिपटा हो जैसे ।।
तदपि मुक्ति मारग पे,
चलने की है ठानी ।
पकड़ लीजिये अँगुलि हमारी,
सम रस सानी ।।पुष्पं।।

कथा गृद्धता की क्या कहूँ,
निजी, निज मुँख से ।
मृग सा पल दो पल कब बैठ,
सका हूँ सुख से ।।
तदपि मुक्ति मारग पे,
चलने की है ठानी ।
पकड़ लीजिये अँगुलि हमारी,
सम रस सानी ।।नेवैद्यं।।

मोह मदिर मदिरा का नशा,
चढ़ा सिर ऊपर ।
खुश-फहमी ‘कि जाननहार न
मुझ सा भू पर ।।
तदपि मुक्ति मारग पे,
चलने की है ठानी ।
पकड़ लीजिये अँगुलि हमारी,
सम रस सानी ।।दीपं।।

विकथाओं को आठ पहर भी,
कम पड़ते हैं।
कब एकत्व विभक्त कथा,
सुनते पढ़ते हैं।।
तदपि मुक्ति मारग पे,
चलने की है ठानी ।
पकड़ लीजिये अँगुलि हमारी,
सम रस सानी ।।धूपं।।

आस्रव भावों से कब मुखड़ा,
मोड़ा हमनें ।
स्वात्म भावना से कब रिश्ता,
जोड़ा हमनें ।।
तदपि मुक्ति मारग पे,
चलने की है ठानी ।
पकड़ लीजिये अँगुलि हमारी,
सम रस सानी ।।फल॑।।

दूजों की चुगली खाने की,
आदत मुझको ।
हँसी उड़ाऊ कितनी खोट,
बता औ’ तुझको ।।
तदपि मुक्ति मारग पे,
चलने की है ठानी ।
पकड़ लीजिये अँगुलि हमारी,
सम रस सानी ।।अर्घं।।

“दोहा”

भक्तों को जिनसे मिले,
माँ सा निश्छल प्यार ।
गुरु विद्या सविनय तिन्हें,
वन्दन बारम्बार ।।

“जयमाला”

।। आरती उतारो आओ ।

भोग नाग काले ।
वन जोवन चाले ।
घन गर्जन सुन के, आ तरु-तल ठाड़े ।।
ज्योति घृत दीप जगाओ ।
आरती उतारो आओ ।।१।।

त्याग राग द्वेषा ।
कर लुंचन केशा ।
चतुपथ गुजर चली, शीत निश अशेषा ।।
मोति दृग् सीप झिराओ ।
ज्योति घृत दीप जगाओ ।
आरती उतारो आओ ।।२।।

जागृत निश-दीसा ।
गुण धन अठ-बीसा ।
सम्मुख सूर खड़े, चढ़ पर्वत शीषा ।।
लौं अविनश्वर लगाओ ।
मोति दृग् सीप झिराओ ।
ज्योति घृत दीप जगाओ ।
आरती उतारो आओ ।।३।।

।।जयमाला पूर्णार्घं।।

“दोहा”

सबरी कहते कब बने,
अपने मन की बात ।
कही जुवाँ ने कुछ, कहे,
कुछ नयन बरसात ।।

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