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आचार्य श्री पूजन

गुरु-पाद पूजन – 172

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित

पूजन क्रंमाक 172

गुरुवर तेरे दीवाने ।
आये हैं तुम्हें मनाने ।।
दो नजर उठा इक बारी ।
जाऊँ मैं बलि-बलि हारी ।। स्थापना ।।

लाया जल से झारी भर ।
आने बाहर से भीतर ।।
दो नजर उठा इक बारी ।
जाऊँ मैं बलि-बलि हारी ।। जलं ||

चन्दन झारी ले आया ।
करने मिथ्यात्व सफाया ।।
दो नजर उठा इक बारी ।
जाऊँ मैं बलि-बलि हारी ।। चंदनं ।।

आया परात अक्षत ले ।
पद स्वप्न साथ अक्षत ले ।।
दो नजर उठा इक बारी ।
जाऊँ मैं बलि-बलि हारी ।। अक्षतम् ।।

गुल लिये सुगन्धित न्यारे ।
करने मद मदन किनारे ।।
दो नजर उठा इक बारी ।
जाऊँ मैं बलि-बलि हारी ।। पुष्पं ।।

घृत व्यंञ्जन तुरत बनाये ।
लाये दव-क्षुधा सिराये ।।
दो नजर उठा इक बारी ।
जाऊँ मैं बलि-बलि हारी ।। नैवेद्यं ।।

लाये दीपक मनहारी ।
आने ‘जी’ तक इस बारी ।।
दो नजर उठा इक बारी
जाऊँ मैं बलि-बलि हारी ।। दीपं।।

लाये दश-गंध निराली ।
परिणति अपहरने काली ।।
दो नजर उठा इक बारी ।
जाऊँ मैं बलि-बलि हारी ।। धूपं ।।

फल लाये मीठे-मीठे ।
होने मन-आप सरीखे ।।
दो नजर उठा इक बारी
जाऊँ मैं बलि-बलि हारी ।। फलं ।।

ले दिव्य द्रव्य हैं आये ।
मन गाने-पाप न गाये ।।
दो नजर उठा इक बारी ।
जाऊँ मैं बलि-बलि हारी ।। अर्घं।।

*दोहा*
गुरु जी का गुण गान ही,
दाता इक मुस्कान ।
सही पलक ही,आ करें,
गुरु जी का गुण गान ।।

॥ जयमाला ॥

उपकार इक-दो हों, तो मैं गिना दूँ ।
तारे गगन कितने, कैसे गिना दूँ ।।

भर सिसकियाँ थी रही गाय माता ।
बन के गुपाला जो तू आ गया था |।
ले जो रही आज मुस्कान गैय्या ।
तेरे सिवा और है किसकी छैय्या।।
फूल चमन के मैं, कैसे गिना दूँ।
उपकार इक-दो हों, तो मैं गिना दूँ ।
तारे गगन कितने, कैसे गिना दूँ ।।

आ थी रही कुछ हवा पश्चिमी यूँ ।
दीवा कहे संस्कृति कैसे जीवूँ ।।
अनुशासन प्रतिभा-प्रतिक्षा स्थलियाँ ।
स्वयं गया रही आपकी विरदावलियाँ ।।
सागर रतन कितने कैसे गिना दूँ ।।
उपकार इक-दो हों, तो मैं गिना दूँ।।
तारे गगन कितने, कैसे गिना दूँ ।।

बच्चे पढ़े थे लिखे, पे नाकारा ।
थे सोचते जन्म भू भार म्हारा ।।
चल चप्पे-चप्पे जो चरखे रहे हैं ।
कर आपके ही तो चर्चे रहे हैं ।।
मंजरियाँ आमन मैं कैसे गिना दूँ ।।
उपकार इक-दो हों, तो मैं गिना दूँ ।।
तारे गगन कितने, कैसे गिना दूँ ।।

थे कई जिनालय लो खंडहर बने थे ।
गिरने को थे, नाम को बस तने थे ।।
पाषाण का कर, दिया नव जनम ही ।
उनका न हो ताकि जीवन खतम ही ।।
पाषाण गिरि कितने कैसे गिना दूँ।।
उपकार इक दो हों, तो मैं गिना दूँ ।।
तारे गगन कितने, कैसे गिना दूँ ।।
।।जयमाला पूर्णार्घ्य।।

*दोहा*
आप दिखेंगे, खुल पड़ीं,
पलकें ले अभिलाष ।
कुछ कीजे टूटे नहीं,
इनका ये विश्वास ॥

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