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आरती

आरती-सुमतिनाथ

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

सुमतिनाथ
आरती

जयतु सुमत जय जय ।
दृग् नम सदय हृदय ।।
उतारुँ आरतिया
करने पापों का क्षय ।
ले दीपों की थरिया ।।
उतारूँ आरतिया

पहली, विरली
गरभ परब की आरतिया
बरसा रतन
हरषा सपन
देख देख मनवा मैय्या |
उतारूँ आरतिया

दूजी, प्रभूजी
परम-जनम की आरतिया
सुमेर न्हवन
देर दर्शन
अख बना सहस शचि सांवरिया ।
उतारूँ आरतिया

तीजी ‘भी’ ‘धी’
याग त्याग की आरतिया
भेष मुञ्चन
केश लुञ्चन
कर, अपूर्व कुछ प्राप्त किया ।
उतारूँ आरतिया

चौथी, नोखी
ज्ञान भान की आरतिया
समव-शरण
सींह हिरण
आपस वैर विड़ार दिया ।
उतारूँ आरतिया

पाँची, साँची
सौख मोख की आरतिया
ऋज गत गमन
अक्षत सदन
सहज निराकुल रस रसिया ।
उतारूँ आरतिया

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